योगम् शरणं गच्छामि

            


          योगम् शरणम् गच्छामि

                           ---लेखक: पुरुषोत्तम पोख्रेल 

  प्राचीन भारतीय सभ्यता के लिए योग एक सर्वपरिचित  विषय  है। परंतु विश्वभर लोकप्रियता के चरम शिखर पर जिस तरह से यह आज है शायद ही कभी रहा होगा। जब से योग का अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ है, विशेष कर 21 जून के दिन विश्व भर में योग का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाने लगा है, अचानक 'योग' एक बहुचर्चित शब्द बन गया है। 'योग' संस्कृत का शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है--जोड़, योगफल, एकात्मता की अवस्था, एकीकरण, मिलन आदि। 

               वास्तव में योग आज देश, धर्म, भाषा, संप्रदाय, भौगोलिक भेदभाव और परिसीमाओं को मिटाकर 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना को चरितार्थ करने की राह पर है। 'योग' संस्कृत धातु 'यूज' से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है व्यक्तिगत चेतना का सार्वजनिक चेतना या रूह से मिलन, परमात्मा से एकात्मकता। क्या भविष्य में योग मानव समाज को इस भावना का बोध करा पाएगा? यह एक मननीय प्रश्न है। योग की वर्तमान दशा और दिशा को देखकर तो ऐसा प्रतीत नहीं होता। योग साधना शरीर, मन एवं आत्मा की उत्कर्षता की साधना का ही दूसरा नाम है। परंतु आजकल अधिकांश लोग योग का उपयोग केवल शरीर साधना के लिए कर रहे हैं।    

               श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है-- 'योग: कर्मसु कौशलम' अर्थात् कर्म करने की कुशलता को ही योग कहते हैं। इसीलिए कृष्ण कहते हैं-- 'योगस्थ कुरु कर्माणि' अर्थात् योग में स्थित होकर कार्य करो। योग के एक और सूत्र में कहा गया है-- आत्मा का सतत दर्शन ही योग है। गीता के सांख्य योग में कहा गया है-- 'समत्वं योग उच्यते' अर्थात समभाव में जब बुद्धि ठहरती है उसे योग कहते हैं। गीता में योग को परिभाषित करते हुए यह भी कहा गया है-- 'योगो भवति दु:खहा' अर्थात् दुख के नाश को योग कहते हैं। 

               पातंजल योगसूत्र के अनुसार-- 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:' अर्थात चित्त में वृत्तियों का निर्माण होना जब बंद होता है उसे योग कहते हैं। योगवाशिष्ठ में कहा गया है--'मन: प्रशमन उपाय: इति योग:' अर्थात् मन को शांत करने का उपाय योग है। योगवाशिष्ठ में ही फिर यह भी कहा गया है-- 'संसारोत्तरणे युक्तिर्योगेशब्देन उच्यते' अर्थात संसार में रहते हुए ही संसार-सागर को पार करने की युक्ति ही योग है। कठोपनिषद के अनुसार इंद्रियाँ, मन और बुद्धि की स्थिर अवस्था को ही योग कहते हैं। (तां योगमितिमन्यन्ते स्थिरमिन्द्रियधारणाम्)

                योग की अनेकानेक परिभाषाओं का इस तरह सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि इसे किसी निश्चित परिभाषा में समेटना एवं सिर्फ कुछ शब्दों की सीमा में बाँधना अथवा किसी एक उद्देश्य मात्र के लिए इसकी उपयोगिता सिद्ध करना असंभव है। इसका आयाम, कार्यक्षेत्र बढ़ रहा है। इसकी क्षमता भी निरंतर बढ़ रही है। आत्मा,मन, इंद्रिय, बुद्धि, कार्यकुशलता की प्राप्ति, दुख से निर्वाण आदि से होते हुए आज के युग में योग भोगवाद, वस्तुवाद, उद्योग तक को  समेटने लगा है। इतनी सारी परिभाषाओं की भीड़ में योग को सही-सही परिभाषित कर पाना नितांत कठिन है। जैसी समझ वैसी परिभाषा। जिसको जिस रूप में आवश्यक हो योग को उसी रूप में आज अपनाया जा रहा है।

               प्राचीन ऋषि-मुनियों के समय में योग आत्मा की शुद्धि का साधन था। परम सत्ता के साथ एकात्मबोध की अनुभूति का माध्यम था। परंतु समय की गति के साथ योग का अवश्य  होने लगा। क्रमशः मन एवं बुद्धि को स्थिर अवस्था में लाने के एवं इंद्रियों को वश में करने के साधन के रूप में इसका विकास हुआ, जिसका उद्देश्य कलुषित मन को शुद्धता प्रदान करना, मन को शक्तिशाली बनाना, विचारों को दृढ़ता प्रदान करना आदि था।  

                सिद्धि प्राप्त ऋषि-मुनियों की जीवनचर्या, चिंतनशैली, कालातीत ज्ञानबोध का साधन योग अथवा ध्यान, मन की साधना तक आते-आते समाज के और अधिक लोगों को समेटने में सफल हुआ, परंतु योग की स्थिति ऋषि-मुनियों के समय की सी नहीं रही। योग के विस्तार का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि इस क्रम में योग की अनेक विधियाँ विकसित हुईं।  मंत्र योग, तंत्र योग, यंत्र योग, हठयोग, सहज योग, राजयोग, महायोग, अनुयोग, अतियोग, स्वरयोग, विपासना, कुंडलिनी जैसे न जाने कितने ही किस्मों के योगों का  विकास होने लगा। 

              श्रीमद्भगवत्गीता के 18 अध्याय विविध 18 योगों के नाम पर ही हैं, जिनमें मुख्य हैं-- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। सभ्यता के क्रमविकास के क्रम में योग भले पुराने रूप में न रहा हो, ऋषि-मुनियों के समय की उत्कृष्टता अब न रही हो, आत्मा की साधना से मन की साधना के साधन के रूप में  रूपांतरित हुआ हो, परंतु इसका व्यापक विस्तार अवश्य हुआ। किसी समय की प्राचीन सभ्यता और हिंदू सभ्यता -संस्कृति अथवा निश्चित क्षेत्रविशेष का धरोहर योग धीरे-धीरे विश्वभर सभी वर्ग, धर्म, संप्रदाय, भाषा-भाषियों में प्रिय होने लगा। भारतवर्ष की भूमि से निकलकर चारों ओर फैलने का क्रम शुरू हुआ। 

               प्राचीन समय के मनुष्य शारीरिक रूप से बलिष्ठ थे। वह अपनी आत्मा, इंद्रिय और मन को भी बलिष्ठ बनाना चाहते थे। चिंतनशैली पारलौकिक एवं आध्यात्मिक होने के कारण योग का शरीरकेंद्रित अभ्यास नहीं था। साधना,  ज्ञान आदि के अभ्यास की कमी के चलते आज मनुष्य पहले की तुलना में शारीरिक रूप से भी अत्यंत निर्बल है। प्रदूषण, नई-नई दुस्साध्य बीमारियाँ, शारीरिक श्रमजनित कार्यों की कमी आदि की वजह से आज का इंसान शारीरिक रूप से अत्यंत कमजोर हो गया है। आरामप्रिय जीवनशैली शारीरिक सुखबोध तो कराता है, परंतु ऐसा सुख स्थाई नहीं होता। न्यूनतम शारीरिक परिश्रम के चलते मानव शरीर कई असाध्य बीमारियों का घर बनता जा रहा है। इन्हें दूर करने के लिए संसार भर की उपचार पद्धतियों का  सहारा लिया जाता है। ये अत्यंत खर्चीले होते हैं और ये लाभप्रद भी नहीं होते। अंत में  योग की शरण में आकर ही वह शारीरिक रूप से तंदुरुस्त हो उठते हैं। मानसिक शांति और वलिष्ठता भी प्राप्त करते हैं। वर्तमान समय में योग शरीर-साधना अथवा स्वास्थ्य-साधना का एक मुख्य माध्यम है। 

               प्राचीन काल से आज तक योग-गंगा को विश्वभर बहाने में, जन-जन को स्वस्थ आत्मा, मन और शरीर प्रदान करने में, योग को लोकप्रियता के नए शिखर तक पहुँचाने में जिन्होंने भगीरथ प्रयत्न किया है, यहाँ उनको याद किए बिना नहीं रहा जा सकता। आदियोगी भगवान शिव से योग का प्रारंभ हुआ है, ऐसा माना जाता है। साथ ही अनेकानेक तेजस्वी, तपस्वी,  योगी और सिद्ध संतों ने एवं महान ऋषि मुनियों ने ध्यान, योग, उपासना पद्धति आदि को निरंतर आगे बढ़ाने का कार्य किया, जिनमें सप्तर्षि--वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, याज्ञवल्क्य, कात्यायन के साथ-साथ ऐतरेय कपिल, जैमिनी, गौतम, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, मारीचि, जमदग्नि,  पराशर, वेदव्यास, अष्टावक्र जैसे अनगिनत ऋषियों एवं संत सिद्ध परंपराओं का नाम लिया जा सकता है। 

              भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग के साथ-साथ योग की और अनेक विधाओं का सामंजस्य कर गीतावाणी से दुनिया को नई राह दिखाने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण को भी कैसे भुलाया जा सकता है। प्राचीन काल के उपर्युक्त ऋषि कुल के अलावा मध्य काल के संत शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, गोरखनाथ, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास आदि ने अध्यात्म योग, भक्ति योग, ध्यान योग आदि को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। 

                 योग और योगियों की चर्चा की जाए और महर्षि पतंजलि का नाम तक न लिया जाए यह असंभव है। योग परंपरा अति प्राचीन काल से चली आ रही थी। परंतु व्यापक तौर पर सूत्रबद्ध कर योग को जन-जन की समझ के योग्य बनाने का महत्वपूर्ण कार्य मुख्य तौर पर पतंजलि ने किया। इसलिए महर्षि पतंजलि को 'फादर ऑफ योगा' कहा जाता है। उन्होंने योग के 195 सूत्र प्रतिपादित किए, जो योग-दर्शन के स्तंभ माने गए। योग के साथ ही उन्होंने व्याकरण-शास्त्र के माध्यम से संस्कृत को नियमसम्मत बनाने का कार्य किया। आधुनिक संस्कृत अपनी स्थिरता, सरलता और नियमबद्धता के लिए हमेशा इनकी ऋणी है। वह व्याकरणविद तो थे ही, साथ ही संगीतज्ञ, गणितज्ञ और खगोलविद भी थे। लेकिन सबसे बढ़कर पतंजलि को महान योगी के रूप में ही याद किया जाता है। योगी की परंपरा में महर्षि पतंजलि को शिव के अवतार से कम नहीं समझा जाता। 

               आज के आधुनिक युग में भी कई योगी, योगसाधक और योगप्रेमियों ने इस अलख को जनमानस में जगाए और जलाए रखने का बीड़ा उठाया। इनके कारण ही योग हर किसी की पहुँच की चीज बन गई। नहीं तो योग हमेशा ऋषि-मुनियों की अथवा कुछ विरले लोगों की वश की चीज समझी जाती थी। ऋषि अरविंद, लाहिड़ी महाराज, स्वामी विवेकानंद, तिरुमलाई, कृष्णमाचार्य, स्वामी शिवानंद, बी.के.एस आयंगर, महर्षि महेश योगी, परमहंस योगानंद, जग्गी वासुदेव, विक्रम चौधरी के साथ साथ पाकिस्तान के शमशाद हैदर आदि अनगिनत योगाचार्यों के अथक एवं आजीवन प्रयास और साधना के कारण योग आज इस मुकाम तक आ पहुँचा है। 

                आधुनिकतम समय में बच्चे-बूढ़े सभी की जुबान पर, घर के कोने-कोने में, दूरदर्शन, अखबार, पढ़ाई, चर्चा-परिचर्चा में, दुकान-बाजार, व्यवसाय तक में हर कहीं गूँजने वाला एक नाम है स्वामी रामदेव। वास्तव में ही आज अगर योग को पूरी दुनिया इतने वृहत स्तर पर जानती है तो इसका अधिकतम श्रेय बाबा रामदेव को जाता है। नौली क्रिया, कपालभाति, भस्त्रिका, अनुलोम-विलोम, अन्य अनेकानेक यौगिक क्रियाएँ और साधारण से लगने वाले सूक्ष्म व्यायामों के साथ-साथ पतंजलि आयुर्वेद ने बाबा रामदेव की ऐसी पहचान दिलाई कि.... टीवी के माध्यम से लोगों की दहलीज तक पहुँच कर हर सुबह एक साथ लाखों-करोड़ों लोगों को जगाने वाले एवं योग, अध्यात्म और सेहत की शिक्षा देने वाले बाबा रामदेव ने अनगिनत लोगों के जीवन का कायाकल्प कर दिया है। व्यक्ति-व्यक्ति को योग की शरण तक पहुँचने के लिए मजबूर कराने वाले, क्षेत्र और देश विशेष की परिधि से बाहर निकल कर 'सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया' की वेद वाणी को सार्थक करने वाले योग गुरु बाबा रामदेव का नाम आदियोगी शिव, महर्षि पतंजलि की तरह संसार हमेशा याद रखेगा। 

                  बड़ा योग साधक अथवा योग गुरु ना होते हुए भी जीवन का ज्यादा से ज्यादा समय समाज, देश और राजनीति के प्रति समर्पित करते हुए भी भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री आदरणीय नरेंद्र मोदी जी ने जिस कुशलता के साथ योग का अभिभावकत्त्व किया, साथ ही संयुक्त राष्ट्र में 21 जून की तारीख अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में पारित कराकर विश्वभर योग का संरक्षण कराया और योग के माध्यम से विश्व को आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक उत्कर्षता और निरामयता के प्रति पूरी दुनिया को जागृत किया, वह अविस्मरणीय है। 21 जून की तारीख में 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' मनाने का सुझाव इसलिए दिया गया था क्योंकि यह वह तारीख है जब उत्तरी ध्रुव में दिन की अवधि सबसे लंबी होती है और योग भी मनुष्य को दीर्घ जीवन प्रदान करता है।

                  हिंदू संस्कृति के अविच्छिन्न अंग के रूप में मान्यता प्राप्त योग को संयुक्त राष्ट्र के मुस्लिम राष्ट्रों से कितना समर्थन प्राप्त होगा इस पर कई लोगों के मन में प्रश्न भी उठ रहे थे। परंतु अधिकतर मुस्लिम राष्ट्रों ने इस प्रस्ताव का भारी समर्थन किया और इस शंका को मिटा दिया कि योग को लेकर मुस्लिम संप्रदाय में कोई विकार है। योग को किसी धर्म, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्र विशेष की संपत्ति नहीं कहा जा सकता। विभिन्न तरीकों और नामों से अनेक धर्मों में योग का अभ्यास होता आ रहा है, जो आज तक निरंतर है। इस पृथ्वी पर समाज को नई दिशा और सत्मार्ग प्रदान करने के लिए समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। इसके लिए उन्होंने उपदेश मात्र नहीं दिए, योग का माध्यम भी अपनाया। 

                आज के करीब 25 सौ वर्ष पूर्व नेपाल की पावन भूमि पर लोगों की पीड़ा, दुख-कष्ट दूर करने के लिए एवं समाज का नवनिर्माण करने के लिए भगवान विष्णु ने बुद्ध का अवतार लिया था। उन्होंने योग और ध्यान के सहारे स्वयं भी बोधित्व प्राप्त किया और अपने अनुयायियों को भी विपश्यना के नाम से ध्यान की एक नई विधि सिखाई। बौद्ध धर्म की ही तरह जैन धर्म में भी ज्ञान-साधना एवं जीवनचर्या को उत्कृष्टता प्रदान करने के लिए भगवान महावीर के साथ साथ अन्य जैन तीर्थंकरों ने भी योग का सहारा लिया है। इस्लाम भी अंततः योग से प्रभावित हो ही गया। इस्लाम की प्राचीन सूफी संप्रदाय में योग मुद्राओं का व्यापक अभ्यास देखा जाता है। आज इस्लाम प्रभावित कई देशों में खुलकर योगाभ्यास करते हुए लोगों को देखा जाता है। संयुक्त राष्ट्र में 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' पारित करने के प्रस्ताव में पाकिस्तान ने भले ही समर्थन न दिया हो, परंतु पाकिस्तान में भी योग के प्रति दीवानगी है। पाक के पंजाब सूबे के एक छोटे से गाँव के युवक शमशाद हैदर आज हजारों लोगों को योग सिखा रहे हैं। उन्होंने भारत, नेपाल और तिब्बत से योग सिखा था। जीवन का एक लंबा समय उन्होंने हरिद्वार में बिताया था। उनकी पत्नी सुमेला शादी से पहले साँस की मरीज़ थी। हैदर की योग कक्षाओं के प्रभाव से उनकी बीमारी जाती रही। फिर उन्होंने योगी हैदर से ही शादी कर ली। अब सुमैला भी योग सिखाती है। यहूदी और ईसाई संप्रदाय में भी योग अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इस तरह योग ने वास्तव में ही संसार के हर हिस्से, हर समाज, हर संप्रदाय, समुदाय भाषा-भाषियों के बीच अपना निरपेक्ष स्थान बना लिया है। यह संसार के हर एक को जोड़ रहा है और अपना नाम सार्थक कर रहा है। 

                आज चारों ओर योगसर्वस्व वातावरण बन रहा है। शरीर ही नहीं, मन, आत्मा, इंद्रियों की शुद्धि एवं उत्कृष्टता का आध्यात्मिक साधन योग आज धीरे-धीरे उद्योग बन रहा है। पैसे कमाने का वस्तुवादी साधन बन रहा है। आज सामाजिक जागरूकता, समाज नवनिर्माण का अभियान है योग। पढ़ाई का पाठ्यक्रम, रोजगारी का माध्यम, प्रसिद्धि का साधन है योग। शांति के लिए, अनुशासित जीवन के लिए योग। कार्य क्षमता बढ़ाने के लिए योग। सर्वांगीण विकास के लिए योग। फर्श, बिस्तर, घर, पार्क, विद्यालय, कार्यालय, पुलिस, सेना, प्रशासन, खेल-कूद, नृत्य, व्यवसाय, कारागार-- हर कहीं योग, योग और योग। समाज के हर आयाम, हर पहलू में योग। अब तो हर किसी को कहना ही पड़ेगा--'योगम् शरणम गच्छामि'।

                 योग में समाज का हर वर्ग जुड़े, हर अच्छी बात समाहित हो यह तो हर कोई चाहता है, परंतु आज योग में कुछ नकारात्मक प्रवृत्तियाँ भी बढ़ती जा रही हैं। इंसान की जरूरत, उसकी क्षमता और माहौल के मुताबिक अपने अनुसार योग में नए समायोजन और समन्वय करने की छूट भी योग गुरु देते हैं। परंतु आज इसका गलत फायदा उठाया जा रहा है। गाँजा योग, वीयर योग तक का विकास होने लगा है। पश्चिमी समाज नग्न योग का अभ्यास करने लगा है। योग जैसे सर्वहितकर संस्कृति में इस तरह की विकृतियों का समावेश  बढ़ता जाना चिंता का विषय है। योग तो सभ्यता है इसमें असभ्यता का स्थान कहाँ? योग के माध्यम से सुंदर  संस्कृति का परचम लहराना चाहिए, विकृति का नहीं। योग देश,भाषा, धर्म, संप्रदायों की सरहदें तो लाँघे, परंतु मर्यादा की नहीं। योग में जब तक संयम, संकल्प, अनुशासन, मर्यादा, सत्ता, पवित्रता, सत्साधना है-- तब तक ही योग है।

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