सूरदास के पद (पदों की व्याख्या)
सूरदास के पद L पहले पद की व्याख्या ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी। अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी। पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी। ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी। प्रीति नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी। ‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।। ऊपर लिखे गए पद में गोपियाँ उद्धव पर व्यंग करते हुए कहती हैं कि उद्धव कृष्ण के निकट रहकर भी उनके प्रेम में नहीं बँधे हैं । वे बड़े ही भाग्यशाली हैं कि कृष्ण के प्रति उनके मनमें जरा भी मोह नहीं है। किसी भी प्रकार का बंधन या अनुराग नहीं है। बल्कि वे तो कृष्ण के प्रेम रस से बिलकुल अछूते हैं। वह उस कमल के पत्ते की तरह हैं जो जल के भीतर रहकर भी गिला नहीं होता। जैसे तेल से चुपड़े हुए गागर पर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहरती, वैसे ही उद्धव पर भी कृष्ण के प्रेम का कोई असर नहीं हुआ है। प्रेम की नदी अथवा सागर स्वरूप श्रीकृष्ण के इतने निकट होकर भी उसमें उन्होंनेे अपने पाँव नहीं डुबोए हैं। उनका मन कृष्ण के सौंदर्य पराग पर भी कभी मोहित नहीं होता। वास्तव में गोपियाँ कृष्ण के प्रति उद्धव की इस अनुरागहीनता