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शब्दार्थ : नेताजी का चश्मा

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                       नेताजी का चश्मा                                  -- स्वयं प्रकाश शब्दार्थ (i) कस्बा ------------ छोटा अर्धविकसित शहर  (ii) उहापोह -------- दुविधा, असमंजस की स्थिति, क्या करूँ क्या                              न करूँ की अवस्था (iii) कमसिन ------ कम आयुवाला, अल्पवयस्क  (iv) कौतुकभरी --- आश्चर्यपूर्ण  (v) कौतुक --------- आश्चर्य, उत्सुकता (vi) दुर्दमनीय ------ जिसका दमन न किया जा सके (vii) खुशमिज़ाज --- प्रसन्नचित्त  (viii) पारदर्शी ------- जिसके आर-पार देखा जा सके, स्पष्ट (ix) नतमस्तक होना ---- सिर झुकाना  (x) मरियल-सा ------- अत्यधिक कमजोर  (xi) कौम ------------ जाति, वंश, समाज, राष्ट्र  (xii) अवाक --------- हैरान (xiii) सरकंडा -------- एक प्रकार की घास  (xiv)आँखें भर आना --- आँसू आ जाना  (xv) फेरी लगाना -------- घूम-घूम कर सामान बेचना -।।

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद: तुलसीदास

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राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद                          -- तुलसीदास  प्रश्नोत्तर : प्रश्न 1 : परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन कौन से तर्क दिए?  उत्तर : धनुष के टूटने से परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने इसके टूट जाने के कई तर्क दिए। लक्ष्मण ने कहा कि पुराने धनुष के टूटने से क्या लाभ और क्या हानि? राम ने तो इसे नया समझकर उठाया था, लेकिन उनके छूते ही यह टूट गया तो इसमें राम का क्या दोष, आदि। प्रश्न 2 : परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए। उत्तर : राम के स्वभाव की विशेषताएँ : (i) राम अत्यंत विनम्र स्वभाव के हैं। (ii) वह बहुत कम बोलते हैं और उनका स्वभाव शांत है। (iii) वह अपने से बड़ों का और ऋषि-मुनियों का सम्मान करते हैं। (iv) वह अपनी कोमल और मधुर वाणी से माहौल को शांत बनाने की क्षमता रखते हैं। लक्ष्मण के स्वभाव की विशेषताएँ : (i) लक्ष्मण उग्र और तर्कशील स्वभाव के हैं। (ii) वह वीर और साहसी हैं। (iii) वह किसी के क्रोध एवं हथियारों से नहीं डरते। (iv वह किसी भी प्रकार के अ

शब्दार्थ: राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

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          राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद                               ----तुलसीदास  शब्दार्थ : ( 1) "नाथ संभुधनु भंजनिहारा......बिदित सकल संसार" तक: (i) भंजनिहारा -------- तोड़ने वाला  (ii) होइहि ------------ होगा  (iii) केउ ------------- कोई  (iv) मोही ------------ मुझे  (v) रिसाई ----------- क्रोध करके (vi) कोही ----------- क्रोधी (vii) अरिकरनी ----- शत्रुता का कर्म (viii) रिपु ----------- शत्रु (ix) बिलगाउ -------- अलग होना (x) अवमाने --------- अपमान करते हुए  (xi) धनुही ----------- छोटा धनुष (xii) तोरी ----------- तोड़े (xiii) लरिकाईं ------ लड़कपन में, बचपन में  (xiv) गोसाईं -------- स्वामी, महाराज, एक आदरसूचक संबोधन (xv) हेतू ------------ कारण (xvi) भृगुकुलकेतू --- भृगुवंश के महान पुरुष, परशुराम  (xvii) नृपबालक ---- राजा का बेटा, राजकुमार  (xviii) सँभार ------- संभल कर  (xix) बिदित -------- परिचित  (xx) सकल --------- सारा (2) "लखन कहा हसि हमरे .... परसु मोर अति घोर।।" तक: (i) हसी ------------- हँस कर  (ii) हमरे ------------- मेरे  (iii) जाना ------------ जानकारी म

शब्दार्थ (सूरदास के पद)

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        शब्दार्थ (सूरदास के पद) (1) पहला पद "उधौ, तुम हौ ..... ज्यौं पागी।।" के कुछ  शब्दार्थ: (i) बड़भागी  ------ भाग्यशाली (ii) अपरस ------ अछूता, अलिप्त, दूर  (iii) तगा --------- धागा, बंधन  (iv) नाहिन ------  नहीं (v) अनुरागी ------ प्रेम में डूबा हुआ (vi) पुरइनि पात --- कमल का पत्ता (vii) देह ------------ शरीर  (viii) दागी --------- दाग, धब्बा (ix) माहँ --------  में  (x) ताकौं ------- उसको  (xi) प्रीति ------  प्रेम (xii) पाऊँ --------- पाँव (xiii) बोरयौ -------- डुबोया (xiv) परागी ------- मुग्ध हुई, मोहित हुई  (xv) अबला------ शक्तिहीन नारी, महिला  (xvi) भोरी ------ भोली-भाली  (xvii) गुर -------- गुड़  (xviii) चाँटी-------- चींटी (xix) पागी ------ पगी हुई, पिघली हुई                         ***** (2) दूसरा पद "मन की मन ही ---- मरजादा न लही।।"  के कुछ शब्दार्थ: (i) माँझ --------- में, अंदर  (ii) अवधि ------ समय  (iii) अधार ---- आधार  (iv) आस ------ आशा  (v) आवन की --- आने की  (vi) बिथा ------- व्यथा  (vii) जोग ------  योग  (viii) विरह ----- वियोग, विछोह, जुदाई 

सूरदास के पद

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                   सूरदास के पद                                   (1)              ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी। अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी। पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी। ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी। प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोर्यौ, दृष्टि न रूप परागी। ‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।                                (2)                 मन की मन ही माँझ रही। कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही। अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही। अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही। चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही। ‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।                                (3)                  हमारैं हरि हारिल की लकरी। मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी। जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री। सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी। सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी। यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।                               (4)                 हरि हैं राजनीति पढ़ि आए। समुझी बात कहत म

ধূলিকণা মই

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                            ধূলিকণা মই                                  কবি:-- চন্দ্রধৰ বৰুৱা   যিদিনা মৰিম মই                 সেইদিনা বাৰু                জগতৰ কেনি হানি হ’ব ?    মৰিলোঁ নে আছোঁ মই         এই কথাকেনো                পৃথিৱীৰ কিমানে জানিব ?       মই মৰিলেও               দিন গ’লে ৰাতি হ’ব,               জোন বেলি ওলায়ে থাকিব;        গছত ফুলিব ফুল             বতাহ বলিব,                 নিজ বাটে নক্ষত্র ঘূৰিব ।      আজিৰ দৰেই নিতে              জগত চলিব,                 নাই তাত অকণো সংশয়;     এই বিশ্ব-সংসাৰত               কোনো নিয়মৰে                   লৰচৰ অলপো নহয় ।       মই নোহোৱাৰ বাবে              এই জগতৰ                কোনো কাম পৰি নাথাকিব,     কামত বিভোৰ                 এই বিশাল বিশ্বই                    মই মৰা গমকে নাপাব ।       অনন্ত বিশ্বৰ                 এই অসংখ্য ধূলিৰ                    এটি মাত্র ধূলিকণা মই;      মোৰ অবিহনে                  এই বিপুল সৃষ্টিৰ,                  কেনিও অকণো হানি নাই । __________________________________________________                

সৰু বস্তু

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  সৰু বস্তু                            কবি: বিনন্দ চন্দ্ৰ বৰুৱা এটোপ এটোপ কৰি                 ডাৱৰৰ পানী পৰি                       ভৰি গ'ল বহল সাগৰ,  কণ কণ বালি চাঁহি                   ইটে সিটে লগ লাগি                     সাজি দিলে ধৰণী ডাঙৰ।  পল অনুপল কৰি                    ডাঁৰ দিন মাহ চৰি                    যুগ যুগ পাৰ হৈ যায়, এটি দুটি কৰি গঁথা                  মৰমৰ মাত কথা                    জগতক সৰগ কৰায়। অকল সুখেৰে ভৰা                 নহয় জানিবা ধৰা                    দুখো আছে সুখৰ লগত,  এটি মাথোঁ হাঁহি সৰি              জগত পোহৰ কৰি                   সুখে ভৰা কৰিছে মৰত।  ______________________________________________                              সংকলন: পুৰুষোত্তম পোখ্ৰেল              https://www.lifefeeling.in/21-lessons-for-the-21st-century-hindi-pdf-download/ ..

कक्षा 10 का पाठ्यक्रम

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  कक्षा 10 का पाठ्यक्रम         विषय: हिंदी क्षितिज:  काव्य-खंड  --- सूरदास के पद                  --- राम लक्ष्मण परशुराम संवाद (तुलसीदास)                  --- देव के सवैये और कवित्त                  --- आत्मकथ्य (जयशंकर प्रसाद)                  --- उत्साह, अट नहीं रही है (सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला')                  --- यह दंतुरित मुसकान, फसल (नागार्जुन)                  --- छाया मत छूना (गिरिजाकुमार माथुर)                  --- कन्यादान (ऋतुराज)                   --- संगतकार (मंगलेश डबराल) गद्य-खंड     ---  नेताजी का चश्मा (स्वयं प्रकाश)                  --- बालगोबिन भगत (रामवृक्ष बेनीपुरी)                  --- लखनवी अंदाज (यशपाल)                  --- मानवीय करुणा की दिव्य चमक (सर्वेश्वर दयाल                                                                              सक्सेना)                  --- एक कहानी यह भी (मन्नु भंडारी)                  --- स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन (महावीर                                                                        प्रसाद द्

मुहावरे

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                        मुहावरे                          ----  संग्रह: पुरुषोत्तम पोख्रेल    1. अंगूठा दिखाना : (कोई चीज देने से तिरस्कार के साथ इनकार कर देना): धर्मचंद ने कल कहा था-- किताब ले जाना, लेकिन आज जब लेने गया तो अंगूठा दिखा दिया । 2. अँधेरे मुँह या मुँह अँधेरे : (बड़े सवेरे) वह अँधेरे मुँह उठ कर चला गया और मुझे मालूम भी न हुआ। 3. अक्ल चरने जाना: (समझ का न रहना) अरे रमण, क्या तुम्हारी अक्ल चरने गई थी कि घर की चाबी लेकर चले गए, मैं यहाँ कब से बैठा हूँ। 4. अक्ल पर पत्थर पड़ना, अक्ल मारी जाना या अक्ल पर पर्दा पड़ना: (बुद्धि नष्ट होना) भाई रामू की अक्ल पर तो पत्थर पड़ गया है, कहा था दाल में नमक छोड़ने को और इसने छोड़ी चीनी। 5. अगर मगर करना: ( बहाने बनाना अथवा टालमटोल करना) देखो भाई, अगर मगर करने से काम नहीं चलेगा साफ-साफ कहो चलोगे या नहीं? 6. अन्न-जल उठना : (जीविका का न रहना) नहीं महेश, मैं अपने मन से नहीं जा रहा हूँ। सच पूछो तो अब यहाँ से मेरा अन्न-जल उठ गया है।  7. अपनी-अपनी पड़ना : (अपनी अपनी चिंता में व्यग्र होना) अरे! वहाँ प्लेग फैला था प्लेग! सबको अपनी-अपनी पड़ी थी

अभिज्ञान शाकुंतलम्

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                         शकुंतला                              ---By: पुरुषोत्तम पोख्रेल          'अभिज्ञान शाकुंतलम्' को कालिदास का सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है। संस्कृत में रचित नाटकों में यह निर्विवाद रूप से ही सर्वश्रेष्ठ है। महाभारत में वर्णित एक छोटे से आख्यान पर आधारित एक प्रसंग पर कालिदास ने इस सर्वांगसुंदर नाटक की रचना की है। यह मनोरम नाटक सात अंकों में विभक्त है।         पुरु वंशी महा पराक्रमी राजा दुष्यंत सैन्य सामंतों के साथ मृगया के लिए निकलते हैं। एक हरिण शावक का पीछा करते हुए वह किसी मुनि के आश्रम पहुँच जाते हैं।  राजा दुष्यंत उस शावक पर तीर छोड़ने ही वाले होते हैं, तभी आश्रम के ऋषिगण राजा को संबोधित करते हुए कहते हैं, "महाराज! महाराज!! यह आश्रम का मृग है। इस पर तीर मत छोड़िए। इसे मत मारिए।" राजा ने उनकी बात मान ली। ऋषि यों से उन्हें पता चला कि वह महर्षि कण्व का आश्रम है। उस समय महर्षि कण्व आश्रम में नहीं थे। अपनी पालिता कन्या शकुंतला पर अतिथि सत्कार का दायित्व देकर महर्षि सोमतीर्थ के लिए निकले थे। राजा दुष्यंत के मन में शकुंतला को एक नजर देखने की तीव्र

कालिदास

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                    पुष्पेषु जाती                     नगरेषु काञ्ची                     नारीषु रंभा                      पुरुषेषु विष्णु:।                     नदीषु गंगा                      नृपतिषु राम:                     काव्येषु माघः                     कवि कालिदास:।।         का   लि   दा   स  भारत के इतिहास में गुप्त वंश का शासन काल भारतीय राजनीतिक इतिहास का एक स्वर्णिम युग माना जाता है। इसी युग में कला, शिल्प, स्थापत्य, साहित्य, विज्ञान, व्यापार, वाणिज्य आदि विविध क्षेत्रों में भारत का सर्वांगीण विकास हुआ। उस काल के मठ-मंदिरों की कला या वास्तुशिल्प, विख्यात अजंता-इलोरा गुफाओं की भास्कर्य कला आज भी गुप्त युग में विकसित असाधारण शिल्पकला का परिचय प्रस्तुत करता है। इस युग में संस्कृत साहित्य की अत्यंत श्रीवृद्धि हुई। प्राचीन भारतवर्ष के अद्वितीय कवि कालिदास का आविर्भाव भी इसी समय की बात है।                   भारत के प्राचीन काल में गुप्त वंश के राजा द्वितीय चंद्रगुप्त सम्राट विक्रमादित्य के नाम से भी जाने जाते थे। कहा जाता है कि कालिदास इन्हीं सम्राट विक्रमादित्य के सभा कवि थे और उनक

किन जन्माउनु भयो मलाई

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 किन जन्माउनु भयो मलाई                              मूल हिन्दी: हरिवंश राय बच्चन                       नेपाली अनुवाद: पुरुषोत्तम पोख्रेल  जिन्दगी र जमाना दुई पाटामा पिस्सिएर  मेरा छोराहरु मलाई सोधछन्-- हामीलाई तपाइले किन जन्माउनु भएको?            अनि मसँग पनि यो बाहेक            केहि जवाफ हुँदैन,            त्यो के भने-- मेरा बुआले पनि मलाई नसोधिकन किन मलाई जन्माएका थिए होलान्? मेरा बुआलाई पनि उनका बुआले नसोधि  र उनका बुआका बुआले पनि उनीहरुलाई नसोधिकन किन जन्माएका थिए होलान?             जिन्दगी र जमानाका आंतरिक संघर्ष              हिजो पनि थिए              र आज पनि छन्, शायद धेरै नै             भोली पनि हुने छन्, शायद अझ धेरै... अब तिमीहरु नै नया नियम बनाऊ न त आफ्ना छोराहरुलाई सोधेर  उनीहरुलाई जन्माऊ न त !!

वाच्य

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                                 वाच्य                          क्रिया के उस परिवर्तन को 'वाच्य' कहते हैं, जिसके द्वारा इस बात का बोध होता है कि वाक्य के अंतर्गत कर्ता, कर्म अथवा भाव--- इन में से किस की प्रधानता है। इनमें किसके अनुसार क्रिया के पुरुष, वचन आदि आए हैं। इस परिभाषा के अनुसार वाक्य में क्रिया के लिंग, वचन चाहे तो कर्ता के अनुसार होंगे अथवा कर्म के अनुसार अथवा भाव के अनुसार।   वाच्य के प्रयोग :                      वाक्य में क्रिया के लिंग, वचन तथा पुरुष का अध्ययन 'प्रयोग' कहलाता है। ऐसा देखा जाता है कि वाक्य की क्रिया का लिंग, वचन एवं पुरुष कभी कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होता है तो कभी कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार।  लेकिन कभी-कभी वाक्य की क्रिया कर्ता तथा कर्म के अनुसार न होकर एकवचन, पुल्लिंग तथा अन्य पुरुष होती है। अतः 'प्रयोग' तीन प्रकार के होते हैं--(क) कर्तरी प्रयोग, (ख) कर्मणि प्रयोग और (ग) भावे प्रयोग। (क) कर्तरी प्रयोग : जब वाक्य की क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के लिंग,  वचन और पुरुष के अनुसार हों तब कर्तरी प्रयोग होता

नहीं जाऊँगा मैं पाठशाला

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  नहीं जाऊँगा मैं पाठशाला              मूल नेपाली: हरिभक्त कटुवाल            हिंदी अनुवाद: पुरुषोत्तम पोखरेल पापा, नहीं जाऊँगा मैं पाठशाला इतिहास पढ़ाया जाता है वहाँ बीते दिनों का गणित के सूत्र भी  जंग लगे हुए कल-पुर्जों की तरह बहुत पुराने हो चुके। अब इच्छा नहीं होती मुझे जीने की केवल इतिहास के पन्नों में मुझे तो जीना है आने वाले दिनों में इतिहास की गति को भी पार करते हुए इतिहास से भी बढ़कर कुछ होना है मुझे। इसीलिए पापा, नहीं जाना चाहूँगा मैं पाठशाला फ्रेमिंग करके रखे जा सकने वाले आदर्शों से भी बढ़कर भोगी जाने वाली हकीकत  मुझे अच्छे लगती है। बन चुके रास्तों में चलने से ज्यादा रास्ते बनाते हुए चलना मुझे अच्छा लगता है।  इतिहास के पुराने और बड़े-बड़े ग्रंथ नहीं फावड़े और हथौड़े चाहिए मेरे इन मजबूत बाजुओं को। योजनाओं से नहीं  अपने पैरों से नापने हैं मुझे ऊँची-ऊँची चोटियाँ  और चुकाना है मुझे  इस धरती के कर्ज को। पापा, नहीं जाऊँगा मैं पाठशाला  इतिहास पढ़ाया जाता है वहाँ  मरे हुए दिनों का।