अनुवाद के अभ्यस्त कृष्णप्रकाश

 


अनुवाद के अभ्यस्त 

                 मूल नेपाली: जीवा लामिछाने

               हिंदी अनुवाद: पुरुषोत्तम पोख्रेल 

                  कोरोना वायरस चारों ओर कहर बनकर छा गया है। विश्वव्यापी इस महाव्याधि ने कई लोगों को हमसे छीन लिया है और यह क्रम जारी है। यह सूची काफी लंबी हो चुकी है। आज मुझे विश्वास करना मुश्किल हो रहा है कि इस सूची में सभी नेपालियों के अभिभावक, नेपाली साहित्य क्षेत्र के अथक साधक और मेरे साहित्य गुरु कृष्णप्रकाश श्रेष्ठ को भी निर्ममतापूर्वक इस व्याधि ने हमसे छीन लिया है। 82 वर्ष की उम्र में भी वे काफी तंदुरुस्त और उत्साही दिखते थे। कोरोना वायरस से संक्रमित होने के 1(एक) महीने पहले तक भी वह भाषा और साहित्य के उत्थान में निरंतर लगे हुए थे। उनकी इस सक्रियता को देखते हुए और भाषा साहित्य के प्रति उनके लंबे योगदान का सम्मान करते हुए नेपाल प्रज्ञा प्रतिष्ठान ने अनुवाद के लिए प्रदान किया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान 'अनुवाद प्रज्ञा सम्मान' उन्हींको प्रदान करने की घोषणा की थी। राष्ट्रपति के करकमलों से पुरस्कार प्रदान किए जाने की व्यवस्था करते हुए प्रज्ञा प्रतिष्ठान कृष्ण दाई के नेपाल आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। परंतु विधाता को कुछ और ही मंजूर था।

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                      शीतयुद्ध के समय यह विश्व दो ध्रुवों में विभक्त था। शक्ति की प्रतिस्पर्धा हर क्षेत्र में विद्यमान थी। इसी प्रतिस्पर्धा के दौरान ब्रिटिश संचार माध्यम बीबीसी अपने प्रभाव क्षेत्रों में स्थानीय भाषाओं में अपने कार्यक्रम चला रहा था। बीबीसी के हिंदी और नेपाली रेडियो कार्यक्रमों को चुनौती देने के लिए रेडियो मॉस्को ने भी सन् 1962 में नेपाली भाषा में कार्यक्रम प्रारंभ करने का निर्णय लिया। रेडियो में कार्यक्रम संचालन कर सकने वाले व्यक्तियों की तलाश करते हुए रेडियो मॉस्को के कुछ कर्मचारी मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी में नेपाल से छात्रवृत्ति के साथ पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे कृष्ण प्रकाश के पास पहुँचे।

         पत्रकारिता का अध्ययन पूरा करने के बाद कृष्ण जी गोरखापत्र दैनिक के साथ संबद्ध होने की योजना में थे। उस समय    पत्रकारिता के प्राविधिक ज्ञान सहित गोरखापत्र में नौकरी करना वाकई आकर्षक माना जाता था। वास्तव में सन् 1960 में सोवियत संघ में उनके पढ़ने जाने का उद्देश्य भी यही था। इसलिए रेडियो मॉस्को के पदाधिकारियों का आग्रह उन्होंने प्रेमपूर्वक अस्वीकार कर दिया। उनके अस्वीकार करने के पश्चात रेडियो मॉस्को ने नेपाल सरकार से अनुरोध किया और एक रेडियो कार्यक्रम संचालक मंगाया। परंतु कृष्णप्रकाश जी के पास भी उनका निरंतर अनुरोध आता  रहा। अतः नेपाल लौटने के शर्त  के साथ विद्यार्थी काल से ही  रेडियो माॅस्को के साथ वे जुड़ गए और कार्य करने लगे।

                 रेडियो मॉस्को के संग जुड़ने का मतलब था नेपाली भाषा और रुसी भाषा से जुड़ जाना, नेपाली साहित्य और रुसी साहित्य से जुड़ना अथवा नेपाली राजनीति और सोवियत राजनीति से भी जुड़ना। रेडियो से जुड़ने के बाद उनके लिए स्थायी रूप से नेपाल लौट आना संभव नहीं हो पाया। विदेश में रहने वाले लाखों नेपाली इसी तरह कभी स्वदेश लौट आने का सपना देखते हुए काम कर रहे होते हैं। कृष्णप्रकाश की नियति भी उन्हीं की तरह रही। सोवियत संघ के पतन के बाद सन् 1993 में रेडियो मॉस्को ने नेपाली कार्यक्रम बंद कर दिया। वे तब तक रेडियो से जुड़े हुए थे। इस दौरान वे नेपाली भाषा और रुसी भाषा के सेतु बन चुके थे। नेपाल से रुस भ्रमण के लिए पहुँचने वाले करीब-करीब सभी के लिए औपचारिक और अनौपचारिक मुलाकातों में गाइड अथवा द्विभाषी के रूप में उनका कोई विकल्प नहीं था। पहले सोवियत संघ और बाद में रूस की भाषा, साहित्य, संस्कृति और राजनीतिक ज्ञान के कारण नेपाल से जाने वाली सभी राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक टोलियों के अभिन्न अंग बनते चले गए। छात्रवृत्ति लेकर रुस पहुँचने वाले युवाओं के वे पथप्रदर्शक और अत्यंत प्रिय अभिभावकतुल्य थे। भाषा साहित्य में भी रुचि रखने वाली नई पीढ़ी के तो वे गुरु ही थे। उनका सान्निध्य पाने के लिए निरंतर उनके निकट पहुंचने वालों में मैं भी एक था।

             सद्गुणी व्यक्ति के कौन-कौन से लक्षण होते हैं, शास्त्रों में उनके संबंध में अनेक बातें लिखी गई होती हैं। कृष्णप्रकाश जी में गुणी व्यक्ति के सभी लक्षण दिखाई देते थे। वह विनम्र स्वभाव के थे। विचारशील थे। अनुज पीढ़ी के प्रति अभिभावकीय व्यवहार रखते थे। उनके साथ मेरी 30 वर्षों से भी लंबी जान-पहचान, घनिष्ठता और संलग्नता थी। परंतु मैंने कभी उनमें घमंड अथवा अभिमान की झलक तक नहीं देखी। उनकी आवाज में कभी रूखापन झलकता नहीं था। मैंने कभी उन्हें समस्याओं से विचलित होते हुए नहीं देखा। उनके मन में अपनी दो बेटियाँ--झान्ना और मारीना के प्रति अत्यंत स्नेह था। उन्हें भी उनका हमेशा स्नेह प्राप्त था। हम सभी पर उनका स्नेह था और उनके प्रति हम सबके मन में भी बहुत आदर था। परंतु 3 वर्ष पहले जब उनकी पत्नी संसार को अलविदा कह गई, तब से उनको अकेलापन महसूस करते हुए देखा जाता था। फिर भी उन्हें कभी साहित्य साधना से थककर खाली बैठते हुए नहीं देखा गया।

                कृष्णप्रकाश जी से मेरी पहली मुलाकात रेडियो माॅस्को के नेपाली विभाग में हुआ था, जिसके वे प्रमुख थे। उनके सहयोगी के रूप में काम कर रहे भरत शाक्य के साथ एक ही विश्वविद्यालय में मैं  इंजीनियरिंग पढ़ता था। सोवियत संघ में अध्ययन कर रहे नेपाली विद्यार्थियों के रूस निवास का अनुभव रेडियो के माध्यम से नेपाली युवाओं को सुनाने के लिए भरत जी मुझे रेडियो स्टेशन लेकर गए थे। कृष्ण जी से इसी अवसर पर सबसे पहले मैं मिला था और इसके बाद निरंतर उनसे मेरा संपर्क बना ही रहा। 

                  माॅस्को जैसे बड़े शहर में अनेक व्यावसायिक व्यस्तताओं के बावजूद विभिन्न अवसरों पर हम अक्सर मिलते रहते थे। भाषा के प्रति लगाव के ही कारण शायद अपनी संतान को नेपाली भाषा सिखाने के लिए वह हमें प्रेरित करते रहते थे। विदेश में रहते हुए भी आज मेरे दो बेटों के पास नेपाली भाषा बोलने अथवा लिखने-पढ़ने की जितनी समझ है,  उसमें कृष्णप्रकाश जी का ही मुख्य योगदान है, यह स्वीकार करने में मुझे कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं होती।  उनका मानना था कि विदेश में रहने वाले हर नेपाली को और उनके संतानों को किसी न किसी रूप में नेपाल को याद करते रहना चाहिए। उनका विश्वास था कि भाषा-साहित्य की सेवा के माध्यम से अपने देश की सेवा स्थायी रूप से की जा सकती है।  इसके लिए वे स्वयं भी निरंतर प्रयासरत रहे।

               कृष्ण जी से जब मैं मिलता था तो लगता था कि मैं संपूर्ण नेपाल से ही मिल रहा हूँ। पत्रकारिता साहित्य के साथ संबद्ध होने के कारण उनके पास नेपाल और बाकी विश्व की अनेक प्रकार की नित्य नवीन सूचनाएँ हमेशा होती थीं। अत: उनके साथ वार्तालाप करते समय ज्ञान और सूचना की जैसे तृष्णा ही मिट जाती थी। आश्चर्य भी होता था कि नेपाल से दूर रहने के इतने वर्षों के बाद भी उनमें नेपाल संबंधी जानकारियों का भंडार अथवा अनुसंधान की गहराई बढ़ती ही जा रही थी।

              हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, नेपाली, नेवारी और रुसी सहित 6 (छह) भाषाओं का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इन भाषाओं में से वे  जिस भाषा में भी बात करते थे, आश्चर्यजनक रूप में उसमें पूर्ण शुद्धता हुआ करती थी। 60 वर्ष लंबे रुस प्रवास में रहने के बावजूद किसीको उनकी नेपाली में दूसरी भाषाओं का कोई मिश्रण महसूस नहीं होता था। यही बात उनकी नेवारी और रुसी भाषाओं में भी लागू होती थी। ना भाषाई अशुद्धता, न बोलने की लवज अथवा उच्चारण संबंधी कोई गलती। कितने ही प्रयासों के बावजूद हम उनकी इस अद्भुत क्षमता को अपने स्वभाव में नहीं उतार सके।

         उनकी अनुवाद-शैली भी विशेष थी। रुसी भाषा का वाक्य संयोजन कुछ कठिन होता है।  इसलिए रूसी साहित्य की रचनाओं का नेपाली अनुवाद करना एक दुरुह कार्य है। भावानुवाद ही संभव होता है। परंतु रेडियो में रूसी भाषा के समाचार नेपाली भाषा में अनुवाद करते हुए कोई छोटी-सी गलती हो जाए तो भी राजनीतिक रूप में नकारात्मक असर पड़ने का डर होता था। इसलिए उन्हें बहुत होशियारी बरतनी पड़ती थी। उनके द्वारा शुरू से ही सचेत अनुवाद शैली अपनाये जाने के कारण ही शायद हूबहू अनुवाद करने की उनकी शैली जीवन भर कायम रही।

         ६(छह) दशक के रुस प्रवास के दौरान उन्होंने अपना समय सिर्फ रेडियो और साहित्य सेवा के लिए दिया। रेडियो मॉस्को में कार्य करना एक विशुद्ध राजनीतिक कर्म था। रुसी राजनीति और नेपाल-रुस संबंध इसके केंद्र में रहा करता था। अतः रूस की राजनीति, रुसी लेखक और पत्रकारों से उनका घनिष्ठ संबंध था। सन् 1993 में रेडियो मॉस्को की नेपाली सेवा बंद हो गई। परंतु रूसी साहित्यिक संस्थाओं के साथ उनका संबंध निरंतर बना रहा। अंतिम दिनों में वे मॉस्को लेखक संघ और  वहाँ के प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान के साथ संबद्ध और सक्रिय थे। नेपाली साहित्यकारों के रूस भ्रमण के क्रम में प्रसिद्ध रूसी लेखकों के साथ मुलाकात, नेपाली साहित्य के रूसी अनुवाद और रूसी साहित्य के नेपाली भाषांतर करने-कराने के कार्यों में ही वे ज्यादातर सक्रिय रहा करते थे। अनुवाद के अलावा बाल साहित्य, लोक-परंपरा, किंबदंती, प्राच्यविद्या के क्षेत्रों में भी उनका विशेष योगदान था। मौलिक और अनुदित दोनों मिलाकर उनकी करीब 100(सौ) कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं। साथ ही लगभग 5 दर्जन पांडुलिपियों का प्रकाशन अभी बाकी है। अंतिम दिनों में नेपाल और नेपालियों के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़ने के लिए वे नेपाली भाषा साहित्य की विभिन्न संस्थाओं के साथ संबद्ध थे। गैर आवासीय नेपाली संस्थाओं के स्थानीय कार्यक्रमों में भी वे सक्रिय थे।

      नेपाली राजनीति में भी उनका उल्लेखनीय योगदान था, ऐसा माना जा सकता है। नेपाल में एक बड़ा समुदाय है जो उनके द्वारा अनूदित किताबों को पढ़ते हुए बड़ा हुआ है। मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन के साम्यवादी दर्शन संबंधी पुस्तकों को पढ़कर नेपाल में राजनीति कर रहे एक बड़े समुदाय को उन्होंने बहुत उपकृत किया है। उसी तरह रूसी साहित्य की कई प्रसिद्ध और अनमोल कृतियों का कुशल अनुवाद करते हुए नेपाली साहित्य जगत को भी उन्होंने काफी समृद्ध किया है। उन्‍होंने  टॉलस्टॉय, मेक्सिम गोर्की,  मिखाइल शोलोखोव, आंतोन चेखव, मिखाइल लेर्मेंतोव, अलेक्जेंडर पुश्किन जैसे कई मूर्धन्य साहित्यकारों की कृतियों के अनुवाद से नेपाली अनुवाद साहित्य भंडार को समृद्ध करने का कार्य किया। उसी तरह उन्होंने नेपाली पुस्तकों का रूसी अनुवाद भी किया। उनके अनुवाद साहित्य का प्रभाव अनेक प्रसिद्ध नेपाली लेखकों पर भी पड़ा है। संचार माध्यमों में कई बार उन लेखकों को यह स्वीकार करते हुए जब मैं देखता, सुनता अथवा पढ़ता हूँ तो मुझे कृष्णप्रकाश जी की वह अहोरात्र मेहनत और साधना याद आती है, जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी था। अनुवाद कार्य उनके जीवन का एक नशा था।

                 जिस समय सोवियत संघ अस्तित्व में था, तब उनकी अनुदित और मौलिक कृतियाँ प्रसिद्ध रादुगा और प्रगति प्रकाशन से प्रकाशित हुआ करती थीं। कुछ कृतियाँ नेपाल प्रज्ञा प्रतिष्ठान से और कुछ हिमाल किताब से भी प्रकाशित हुईं। कुछ प्रसिद्ध कृतियाँ व्यक्तिगत क्षेत्रों के प्रकाशनगृहों से भी प्रकाशित हुईं।  सोवियत संघ में अध्ययन करने वाले नेपाली विद्यार्थियों के मुखपत्र 'किरण', 'सार्थवाह', 'नारी' आदि का भी उन्होंने संपादन किया और अनेक साहित्यसेवकों को यह ज्ञान दिया अथवा प्रेरित किया कि विदेश में रहकर भी नेपाली साहित्य की निरंतर सेवा की जा सकती है।

                 सोवियत के प्राज्ञ इल्या रेदको, ल्युग्रीना आगानिना जैसे लेखकों को नेपालविज्ञ माना जाता है। उनके लिए कृष्णप्रकाश जी नेपाल संबंधी ज्ञान के मुख्य स्रोत थे। उन नेपालविज्ञों के साथ सहकार्य करते हुए भी उन्होंने बहुत सारे कार्य किए हैं। वास्तव में नेपाल-रुस संबंध को और अधिक विकसित और सुदृढ़ करने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयत्न किसी कूटनीतिज्ञ से कम नहीं थे। प्रचारविमुख कृष्णप्रकाश जी को  हमेशा चुपचाप काम करना पसंद था। इसलिए उनके कई महत्वपूर्ण कार्य आज भी प्रकाश में नहीं आए हैं।

         नेपाल-रुस पारस्परिक संबंध को प्रगाढ़ करने की नई नई शैलियों का भी वे अनुसंधान करते रहते थे। कुछ ही महीने पहले विमोचित 'दुई राजधानी-- माॅस्को र काठमाडौँ' नामक पुस्तक का संयोजन भी कृष्ण जी ने ही किया था। उक्त पुस्तक में मॉस्को शहर के बारे में 10 रुसी लेखकों के लेख संकलित हैं और साथ ही काठमांडू के बारे में 10 नेपाली लेखकों के निबंध शामिल हैं। कृष्ण जी ने मुझे भी काठमांडू के संबंध में लिखने का अनुरोध किया था, जो इस पुस्तक में समाविष्ट है। यह पुस्तक दोनों देशों के राजधानी शहर-- काठमांडू और मॉस्को को देखने-समझने का सुंदर झरोखा है।

                कृष्णप्रकाश जी की सुदीर्घ साहित्य-साधना का कद्र करते हुए मदन पुरस्कार न्यास ने उन्हें वि. सं. 2059 के लिए 'जगदंबाश्री पुरस्कार' से सम्मानित किया था। इस वर्ष का अर्थात वि. सं. 2077 का 'प्रज्ञा अनुवाद सम्मान' ग्रहण करने के लिए वे नेपाल आने वाले थे, परंतु वृद्धावस्था से होने वाली शारीरिक दुर्बलताओं के कारण शायद वे  कोविड-19 से जंग न जीत सके। इस तरह नेपाली समाज ने अपना एक योग्य अभिभावक खोया। नेपाली भाषा-साहित्य जगत ने एक बड़ा साधक गँवाया। नेपाली राजनीतिक क्षेत्र ने भी नेपाल-रुस संबंध को जनस्तर तक जोड़ने वाले एक कुशल कूटनीतिज्ञ को खोया। इस तरह कोरोना ने नेपाली साहित्य के एक धरोहर को हमारे बीच से छीन लिया। लेकिन नेपाली और रुसी भाषाओं में लिखी गई अपनी असंख्या कृतियों में वे हमेशा जीवित हैं और रहेंगे। जब-जब अनुवाद साहित्य, नेपाल-रुस संबंध और मार्क्सवादी-लेनिनवादी दर्शन को समाज के निचले वर्ग तक पहुँचाने वाले व्यक्तियों के बारे में खोज की जाएगी, कृष्ण प्रकाश श्रेष्ठ जी का नाम अवश्य ही वहाँ अग्रपंक्ति में होगा। नेपाली समाज उन्हें कभी भूला न पाएगा । वे हमेशा याद रहेंगे। 

            प्रिय कृष्ण जी, आपकी भौतिक उपस्थिति के भयानक अभाव के मध्य नेपाली-रुसी भाषा में अपनी अधिकतम साधना का प्रयास  करते हुए आपकी याद का दिया जलाता रहा हूँ, जलाता रहूँगा।



















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