नेपाली यात्रा साहित्य और 'पिरामिडको देशमा'
नेपाली यात्रा साहित्य और 'पिरामिडको देशमा'
मूल नेपाली: कृष्णप्रसाद पराजुली
हिंदी अनुवाद: पुरुषोत्तम पोख्रेल
यात्रा के दौरान अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों के क्षण मिलते हैं। उन्हीं क्षणों में उत्साह और प्रेरणा के फूल खिलते हैं। अनुभव और अनुभूति के गीत समेटे जाते हैं। व्यक्तिसंदर्भ की परिसीमा लाँघते हुए यह अनुभव सार्वजनिक होने लगते हैं। संस्मरण तैयार किए जाते हैं। इन क्षणों के संस्मरणों का पाठ करते समय पाठक भी एकात्मबोध होता है, जैसे वह भी इस यात्रासाहित्य के लेखक के साथ मिलकर यात्रा कर रहा हो।
जीवन भी अपने आप में एक यात्रा ही है। मनुष्य का जीवन कभी गुनगुनाता है, कभी सुगबुगाता है, कभी सुख-दुख के अनेक मोड़ों से होते हुए गुजरता है। इंसान कभी जीवन की ऊँचाई चढ़ता है तो कभी उसे वहाँ से उतरना भी पड़ता है। परिवर्तन की आकांक्षा रखते हुए आगे बढ़ने वाले गतिशील जीवन की यह यात्रा जीवन-संघर्ष के उतार-चढ़ाव को चीरते हुए आगे बढ़ती है।
दूसरी ओर उत्सुकता और खोज की चाह रखते हुए अथवा अध्ययन एवं अवलोकन के लिए भी हम यात्रा करते हैं। अनेकों नए दृश्य और अनुभव आँखों में और मन मस्तिष्क में भर कर लौटते हैं। निश्चित समयसीमा और भौगोलिक सीमा के भीतर की जाने वाली इस तरह की यात्राएँ ज्यादातर उद्देश्यपूर्ण हुआ करती हैं। यात्रा का अभिप्राय खासकर किसी स्थल से परिचित होने के लिए अथवा वहाँ के लोकजीवन और संस्कृति के साथ साक्षात्कार करने के लिए ही होता है। संसार में ज्यादातर लोग सामान्यतः यात्रा का सुख-दुख खुद भोगते हैं, मौखिक रूप से अनुभव भी बाँटते हैं, परंतु कभी लिखकर व्यक्त नहीं करते। लेकिन कवि, साहित्यकारों की दृष्टि कुछ अलग ही होती है। यात्रा के दौरान आए दृश्य, अनुभव और घटनाओं का सूक्ष्म दृष्टि से वे अवलोकन करते हैं और आकर्षक ढंग से उन्हें व्यक्त भी करते हैं। पाठकवर्ग उनके लेखन को इस तरह पढ़ता है जैसे वह भी लेखक के साथ-साथ यात्रा कर रहा हो। यात्रा का सूक्ष्म परंतु जीवंत वर्णन ही यात्रा साहित्य को लोकप्रिय बनाता है। यात्रा साहित्य के कुशल रचनाकार उनके द्वारा देखी और भोगी गई, उनकी अनुभूतियों से गुजरी हुई बातों को इतने रसीले और रोचक ढंग से व्यक्त करते हैं कि वे प्रसंग पाठकों को जल्द ही अभिभूत करने लगते हैं। इसीलिए साहित्य की अनेक विधाओं की तरह यात्रासाहित्य भी रसिक पाठकों के मन में एक अलग स्थान बनाता है।
नेपाल में साहित्यकार, कलाकारों को यात्रा का अवसर अत्यंत कम ही प्राप्त होता है। आजीवन रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता में निमग्न नेपाली लेखक अपने बल-बूते पर स्वयं खर्चीली यात्राएँ कर सकने की स्थिति में नहीं होते। फिर भी कई सौभाग्यशालियों को किसी कार्यवश अथवा अध्ययन-अनुसंधान के लिए कभी-कभी यात्राओं का अवसर अवश्य प्राप्त होता है। लेकिन वे भी इस बीच पैसा कमाने, सामान लाने अथवा किसी साधन को जुटाने का सपना साथ लेकर चलते हैं। परंतु एक स्रष्टा अथवा एक साहित्यकार वहाँ से महान वस्तु लेकर लौटता है और वह है वहाँ का यात्रावृतांत अथवा यात्रासंस्मरण। उनका यह यात्रावृतांत साहित्य संसार के लिए सबसे बड़ा उपहार हो जाता है।
यात्रा में संकलित अनुभवों में मानव सभ्यता एवं संस्कृति की कहानी छिपी होती है। इसीलिए तो इंसान इन्हें जानने के लिए हमेशा यात्रारत रहना चाहता है। नेपाल प्राकृतिक रूप से अनेकों दर्शनीय स्थल एवं विभिन्न धर्मों के तीर्थस्थानों के लिए प्रसिद्ध है। शायद इसीलिए यात्रा अथवा यातायात की दृष्टि से कठिन होते हुए भी भारत और चीन के अनेक श्रद्धालुओं के द्वारा इस देश की यात्रा करने का वर्णन इतिहास के पन्नों में पाया जाता है। उनकी यात्राओं के ये प्रसंग नेपालियों को भी यात्राओं के लिए हमेशा प्रेरित करते आए हैं। उनके द्वारा देश के भीतर स्थित कई दुर्गम स्थान मुक्तिनाथ, गोसाईकुंड, सिलुतीर्थ आदि स्थानों की यात्रा करते रहने के वर्णन लोक-सहित्यों में पर्याप्त पाए जाते हैं। इस तरह इतिहास, लोक साहित्य परंपरा आदि में यात्रावृत्तों की चर्चा भले ही पाई जाए, परंतु नेपाली भाषा में इसका सृजनात्मक विकास अच्छी तरह हो नहीं सका है। अतः नेपाली में यात्रासाहित्य संबंधी कृतियों की संख्या कुछ कम है।
प्राचीन नेपाली गद्य अभिलेखों में भी यात्रासाहित्यों के संकेत अथवा उदाहरण मिलते हैं। आज तक उपलब्ध साहित्य सामग्रियों से पता चलता है कि 'राजा गगनीराजको यात्रा' नेपाली यात्रासाहित्य का प्राचीनतम अभिलेख है। पूर्णप्रकाश नेपाल द्वारा संपादित उक्त यात्राकृति में मुगु से मुस्तांग तक की यात्रा का वर्णन है। अब तक के अनुसंधान अनुसार यह कृति नेपाली यात्रासाहित्य की पहली कृति है। इसमें प्रयुक्त भाषा भी प्राचीन नेपाली भाषा के सृजनात्मक लिखित रूप को दर्शाता है।
नेपाली साहित्य के पूर्व-प्राथमिक काल में वीरधारा साहित्य के अंतर्गत यात्रासाहित्य की स्वयंसंपूर्ण रचनाएँ नहीं पाई जातीं, परंतु कुछ रचनाओं के मध्य यात्रा वर्णन की झलकियाँ अवश्य दिखाई देती हैं, जो यात्रा साहित्य के उत्तरवर्ती वातावरण का निर्माण करती हैं। उदाहरणतः पृथ्वी नारायण शाह की विजययात्रा के प्रसंग को रखा जा सकता है। 'दिव्योपदेश' में ऐसे प्रसंगों का उल्लेख मिलता है। पृथ्वीनारायण शाह की विजययात्रा को आधार बनाकर लिखे गए सुवानंददास रचित 'पृथ्वीनारायण' शीर्षक कविता में उनकी काशीयात्रा और विजय अभियानों का वर्णन है, परंतु कुछ संदर्भमात्र ही। यह कोई पूर्ण यात्रावृत्त की कृति नहीं है।
विक्रम संवत की बीसवीं सदी के प्रारंभ में नेपाल में बहुत बड़ा राजनीतिक बदलाव आया। वि॰ सं॰ 1903 में नेपाल का शासन राणा शासकों के हाथ चला गया। शक्तिशाली अंग्रेजों से मित्रता स्थापित करने वाले जंग बहादुर राणा को विलायत भ्रमण का अवसर प्राप्त हुआ। उसी यात्रा को आधार बनाकर लिखी गई किताब 'जंगबहादुरको विलायत यात्रा'(विसं 1910) नेपाली यात्रासाहित्य इतिहास की एक उल्लेखनीय पुस्तक है। इस कृति के आगमन के बाद नेपाली यात्रासाहित्य ने दूसरा मोड़ लिया। उसके बाद अर्थात् विक्रम संवत 1940 और उसके पश्चात चीन परिचय, यूरोप यात्रा तथा भारत की तीर्थयात्राओं को विषयवस्तु बनाते हुए कुछ यात्राकृतियाँ लिखी गईं। उनमें से कुछ कृतियों का विषय भौगोलिक है। 'गोरखापत्र' और 'शारदा' में छपे हुए कुछ लेख भी यात्रासंस्मरण कहलाने लायक हैं। उनमें 'शारदा' में प्रकाशित भवानी भिक्षु रचित 'सिमलासम्म'(विक्रम संवत 1999) यात्रा संस्मरण का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बना। इस दौरान यात्रासाहित्य कहलाने लायक ऐसे कुछ ही प्रयास हुए। इसके कुछ कारण भी हैं। राणा शासनकाल में प्रजा को अपने ही देश के भीतर घूमने के लिए भी अनुमति लेनी पड़ती थी। विदेश जाने से तो कट्टर हिंदुओं को जातिच्यूत, धर्मच्यूत अथवा समाजच्यूत होने का डर होता था। इसलिए समाज के सामान्य वर्ग को यात्रा के अवसर कम ही मिलते थे। अनेक तरह की अड़चनों के कारण सामान्य वर्ग यात्रा करने से डरता था। राणा वंश के लोगों को ही देश के मूर्धन्य व्यक्ति मानने अथवा ठानने का चलन था। राणा इतर व्यक्ति अपनी यात्राओं को महत्व के साथ लिखने अथवा बता पाने की हिम्मत नहीं करते थे। इसलिए यात्रासंस्मरण की दृष्टि से यह समयखंड इतना उर्वर नहीं हो सका।
विक्रम संवत 2007 में नेपाल में शासन व्यवस्था में परिवर्तन आया। देश के भीतर गमनागमन के नियमों में शिथिलता आई। लेखकों के विचार और उनकी कलम कुछ आजाद हुई। अपने विचार, अनुभव, अनुभूतियों को नए रूप में प्रस्तुत करने को वे स्वतंत्र हुए। परिणामस्वरूप साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना होने लगीं। इसी प्रयास के क्रम में पिछले कुछ दशकों में नेपाली यात्रासाहित्य भी नई गति लेने लगा।
इस युग में अच्छी संख्या में यात्रा साहित्य प्रकाशित हुए। लैनसिंह वाङ्देल द्वारा रचित 'युरोपको चिठी'(विक्रम संवत 2014) और 'स्पेनको सम्झना'(विक्रम संवत 2020) को शिल्पशैली की दृष्टि से अच्छे यात्रावृत्तांत के रूप में याद किया जाता है। वाङ्देल के बाद 'मेरो नेपाल भ्रमण' (विक्रम संवत 2016) कृति के साथ धर्मराज थापा आए। फिर रणशर लिंबू 'बर्मा को सम्झना' (विक्रम संवत 2018) और पूर्णप्रकाश ढूंगेल 'मेरो जुम्ला यात्रा' (विक्रम संवत 2020) लेकर आए।
विक्रम संवत 2020 के बाद नेपाली यात्रा साहित्य का एक और चरण प्रारंभ हुआ। इस दौरान यात्रा साहित्य को नई गति देने में सक्रिय थे-- केदारमणि दीक्षित, तारानाथ शर्मा, यादव खरेल, देवीचंद्र श्रेष्ठ, जनकलाल शर्मा, घनश्याम राजकर्णिकार आदि। केदारमणि दीक्षित के तो अनेकों यात्रासंस्मरण प्रकाशित हुए हैं, जिनमें उनकी देश-विदेश यात्रा और तीर्थभ्रमण के अनुभवों का रोचक वर्णन है। तारानाथ शर्मा नेपाली यात्रासाहित्य के अन्य एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उन्होंने भी नेपाल के विभिन्न भूभागों की यात्रा और विदेश भ्रमण के कई संस्मरण लिखे हैं। 'बेलायततिर बरालिँदा' (विक्रम संवत 2026) और 'पाताल प्रवास' (विक्रम संवत 2043)-- उनके द्वारा लिखित दो प्रमुख यात्रासंस्मरण हैं। 'बेलायततिर बरालिँदा' कृति के लिए तो उन्हें विक्रम संवत 2026 का मदन पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। नेपाली यात्रा साहित्य में देवीचंद्र श्रेष्ठ भी एक उल्लेखनीय नाम है। उनकी 'काठमाडौँ बाहिर' (विक्रम संवत 2028) 'हुम्ला बोल्छ मानसरोवरमा' (विक्रम संवत 2037) और 'घाम पानीको छापबिदो' (विक्रम संवत 2045) जैसी कृतियों में नेपाली जनजीवन के आंतरिक पक्षों का रोचक वर्णन पाया जाता है।
विक्रम संवत 2030 के बाद नेपाली यात्रासाहित्य ने एक और मोड़ लिया। यात्रा साहित्य की निरंतरता के क्रम में जनकलाल शर्मा की कृति 'कौतुकमय डोल्पा' (विक्रम संवत 2031), यादव खरेल की 'समुद्रपारि' (विक्रम संवत 2032), रमेश विकल की 'सात सूर्य एक फन्को' नाम की कृतियाँ प्रकाशित हुई। घनश्याम राजकर्णिकार की कलम यात्रासाहित्य पर ही केंद्रित रही। उनके द्वारा लिखित 'विदेशको यात्रा स्वदेशको सम्झना' (विक्रम संवत 2038) और 'देशविदेशको भ्रमण केही संस्मरण' (विक्रम संवत 2043) दो उल्लेख्य यात्राकृति हैं। इस दशक में और भी अनेकों यात्राकार इस क्षेत्र में दिखे, उनमें एक यात्री का कुछ खास योगदान है। वे हैं-- 'देश दर्शन' कार्यक्रम ख्यात पूर्ण प्रकाश यात्री। उनकी रचनाएँ-- 'बदलिँदो घाम-छाया'(विक्रम संवत 2037), 'सेतीको नालीबेली' (विक्रम संवत 2039) आदि ने नेपाली यात्रासाहित्य में अच्छा योगदान दिया है। काजी रोशन भी एक अन्य उत्साही यात्राकार हैं। उनकी कृति 'मानसरोवरमा डुबुल्की मार्दा'(विक्रम संवत 2035) काफी रोचक रचना है।
विक्रम संवत 2040 के बाद भी नई-नई यात्राकृतियों के साथ यात्रा साहित्य के कई सशक्त हस्ताक्षर इस क्षेत्र में आए। उनमें से श्रीकृष्ण गौतम की कृति 'अल्छीका पाइला'(विक्रम संवत 2040), गंगाप्रसाद उप्रेती की रचना 'स्मृतिका छालमा इटाली'(विक्रम संवत 2040), मंजिल द्वारा लिखित 'सम्झनाका पाइलाहरु'(विक्रम संवत 2044), निर्मोही व्यासकृत 'नौ पाइला'(विक्रम संवत 2046) आदि उल्लेखनीय हैं। इस क्रम में भूपहरि पौडेल की यात्राकृति 'थलैथलाका पाटाहरु'(विक्रम संवत 2043) को भी भूला नहीं जा सकता।
नेपाली यात्रासाहित्य में दो तरह की प्रवृत्तियाँ अथवा धाराएँ सामने आते हुए देखी गई हैं-- स्वदेश के विभिन्न भागों के भ्रमण और अध्ययन से प्राप्त अनुभवों की अभिव्यक्ति और अंतरराष्ट्रीय भूभागों की यात्राओं के अनुभवों की अभिव्यक्ति। देश-विदेश की यात्राओं की अनुभूतियों से भरी हुई इस तरह की कृतियों और कृतिकारों की संख्या अब उल्लेखनीय हो गई है।
यात्रा साहित्य की इसी लहर में महेश्वर राय नेपाली का भी नाम आता है। उन्होंने कविताएँ भी ('अरुणोदय' कविता संग्रह) लिखी हैं। लोकगीत अध्ययन की ओर भी उनकी अभिरुचि और संलग्नता देखी गई है। लेकिन विशेषतः उन्हें एक यात्री अथवा यात्रा साहित्यकार के रूप में मूल्यांकन करना ही ज्यादा उपयुक्त होगा। महेश्वर जी ने देश और विदेशयात्रा-- दोनों ही धाराओं के यात्रासंस्मरण लिखे हैं। उनकी रचना 'काली-सेतीका छालहरु'(विक्रम संवत 2040) में देश के पश्चिमी क्षेत्रों में भोगे गए उनके व्यक्तिगत अनुभव और स्थानीय जनजीवन का सुंदर चित्रण है। विदेश यात्रा के अनुभवों के संकलन के रूप में लिखित उनकी कृति 'सीताको माटोदेखि लिंकनको देशसम्म'(विक्रम संवत 2043) भी उल्लेखनीय है। इसी क्रम में उनकी एक और रचना है-- 'पिरामिडको देशमा'।
'पिरामिडको देशमा' राय की तीसरी कृति है। इस कृति में राय ने यात्रा के क्रम में जो देखा, सुना, भोगा, अनुभूति की-- उन्हींका सरस वर्णन किया गया है। लेखक ने कराची के एयरपोर्ट होटल के प्रसंग से यात्रा वृतांत का प्रारंभ किया है और मिस्र देश की यात्रा करने के बाद दोबारा वहाँ जाने की उम्मीद जताते हुए कृति का समापन किया है। उनकी यात्रा की अवधि ईस्वी संवत 1985 के 13 सितंबर से शुरू होती है और और इसका अंत होता है ठीक 3(तीन) महीने बाद दिसंबर 12 को। इस अवधि के दौरान पिरामिड के देश मिस्र की यात्रा करने के दौरान लेखक ने इस देश के लोगों की जीवनशैली, कला, सभ्यता, संस्कृति आदि जो सब कुछ देखा, उन्होंने अपनी कृति में उन्हींको समेटा। साथ ही साथ वहाँ की कृषि, अर्थतंत्र, विकास तथा निर्माण के प्रयासों का भी अवलोकन किया है। इस तरह यात्राक्रम में लेखक की दृष्टि ने अनेक आयामों की तलाश की और उन सभी को अपनी कृति में स्थान दिया।
महेश्वर राय के इस यात्रासंस्मरण को पढ़ने के बाद यह अनुभव होता है कि उनकी कृति सिर्फ मनोरंजनमुखी नहीं है, बल्कि यह कुछ सीखने-समझने का अवसर भी देती है। मिस्र देश की प्रकृति और वहाँ का जीवन, दोनों को समझाने का प्रयास देखा जाता है। उनकी लेखन प्रकृति सिर्फ चमत्कारों का वर्णन और उनकी प्रशंसा करने मात्र में सीमित नहीं है, वहाँ के जनजीवन और मानवीय हृदय की संवेदनाओं का यथार्थ चित्रण भी करती है। 'पिरामिडको देशमा' उनकी इन सभी लेखन विशेषताओं को समेटती है।
राय के यात्रा वृतांतों की विशेषता यह है कि लेखक हमेशा दिल में स्वदेश की याद लेकर चलते हैं। विशेषकर विदेश यात्रा के क्रम में यात्रारत देश और अपने देश के बीच तुलनात्मक दृष्टि का प्रयोग करते हुए वह देखे जाते हैं। अर्थात् लेखक जहाँ की यात्रा का आनंद उठा रहे होते हैं, वहाँ भी अपने देश को पल भर के लिए भूलते नहीं दिखते। यही विशेषताएँ उनकी कलम को अधिक गतिशील और उनकी कृतियों को अधिक पठनीय बनाती हैं।
महेश्वर राय का यह यात्रावृत्त आत्मसंस्मरणात्मक है और पाठकों के ह्रदय में संवेदनाएं जगाने में भी सफल नजर आता है। इसमें वस्तुगत यथार्थ का आकर्षक चित्रण है। लेखक राय एक ईमानदार सत्यान्वेषी हैं और अपनी कृतियों में वे मानवीय भावनाओं की लहरों के साथ कुशलतापूर्वक खेलने वाले कुशल शिल्पी के रूप में सामने आते हैं। लेखक की भाषाशैली कहीं-कहीं तराई क्षेत्र से प्रभावित दिखती है, परंतु अधिकांशत: नेपालीपन में ही रंगी हुई है। उनकी भाषा सरल है और सरस भी। आत्मपरक वस्तुनिष्ठता, हार्दिकता, सौंदर्यचेतना आदि गुणों के कारण प्रस्तुत वृत्तांत 'पिरामिडको देशमा' ने नेपाली यात्रासाहित्य को और अधिक समृद्ध किया है। नेपाली साहित्य संसार लेखक महेश्वर राय के इस महत्वपूर्ण योगदान को हमेशा स्मरण रखेगा। उनकी कलम कभी न रुके, न थके। उनकी लेखनी से इस तरह की और भी अनेक कृतियाँ निकलती रहें। मैं उनकी गतिशील लेखनी हेतु हार्दिक शुभेच्छा ज्ञापन करता हूँ।
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