मधु विवाह

                 


 

                 मधु विवाह       

                                       मूल नेपाली: मदनमणि दीक्षित 

                                     हिंदी अनुवाद: पुरुषोत्तम पोख्रेल 

            


               यह कोई कहानी नहीं है। अपने सत्य को अपनी कल्पना से रंगाया गया मात्र है। 

                       'दांपत्य की अस्सीवीं जयंती' 

           आगामी दो चैत्र, विक्रम संवत 2075 के दिन हमारे दांपत्य जीवन की अस्सीवीं जयंती के अवसर पर संपन्न होने जा रहे हमारे मधु विवाह में और हमारे परिवार की प्रसन्नता की घड़ी में सम्मिलित होकर हम पर स्नेह बरसाने का विनम्र अनुरोध करते हैं।

                                                प्रार्थी: रीता और दिनेश                                                (प्रथम विवाह: 25 माघ, वि.सं. 1995)

            सगे संबंधी और इष्ट मित्रों के नाम भेजे गए निमंत्रण पत्र के अवशिष्ट अंश के नमूने को दिनेश बड़े ही स्नेहासिक्त दृष्टि से देख रहा था, ऐसे ही समय में उसकी पत्नी ने कमरे में प्रवेश किया और निमंत्रण पत्र के नमूने को पढ़कर पति की ओर विस्मयपूर्वक देखते हुए पूछने लगी-- "क्या है यह मधु-विवाह?"

          "अरे यह! हमारी शादी की अस्सीवीं वर्षगाँठ है यह मधु-विवाह। साठवीं जयंती को भी तो हमने पीयूष विवाह मनाने के बारे में  सोचा था। "  दिनेश ने जवाब दिया।

           आप साहित्यकार जो जो लिख देते हैं, वही वही तो होता आया है आज तक। प्रतिवाद करने कोई आता तो है नहीं। कोई आपसे मिलने आ भी गया तो भी प्रमुख जिला अधिकारी की कोई चिट्ठी पुर्जी ही तो लेकर आता है। एक ही जोड़े का विवाह भी कितनी बार करना? क्या यह कोई यूरोप, अमेरिका है? रीता भले ही शब्दों से   कुछ असंतुष्टि व्यक्त कर रही थी, परंतु मन ही मन प्रसन्न भी हो रही  थी। 

            मुग्ध दृष्टि से दिनेश कभी निमंत्रण पत्र की ओर तो कभी अपनी पत्नी रीता की ओर देख रहा था। सहजीवन के अर्ध-शताब्दी लंबे अनुभव रूपी पहाड़ को वे अच्छी तरह लाँघ चुके थे। 

            तुम्हें पता ही नहीं, तुम्हारे सुंदर चेहरे को पहली बार देखने की कितनी अभिलाषा थी मेरे मन में! कितने सवाल थे मन-मस्तिष्क में विवाह के संबंध में! उस पहले विवाह को भी क्या विवाह कहना? हमारा वास्तविक विवाह तो परसों होगा-- मधु-विवाह। वह विवाह भी कोई विवाह है? माँ-बाप ने हम दोनों की शादी तो करा दी,  लेकिन एक ही कमरे में रहने-सोने की अनुमति तक नहीं दी। मुस्कुराते हुए दिनेश उन पुरानी स्मृतियों को सुनाने लगा।

                                     ***

            "दोपहर दो बजे अमिनगाँव इलाहाबाद एक्सप्रेस से दुल्हन वाले आएँगे। शाम साढ़े पाँच बजे का लग्न है विवाह मंडप में बैठने का।  तब तक तुम्हारे ससुराल वालों को रामापुरा में ही रोकना होगा।  दुल्हन वालों को लेने मैं स्टेशन जाऊँगा और उधर से ही रामापुरा पहुँचा  कर आऊँगा।" यह बताते हुए साँइला दाई बाहर निकल गये। 

             बनारस में रहने वाले साँइला दाई के घर में कुछ दिनों  से उनके बड़े बेटे के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। सभी नातेदार निमंत्रण स्वीकार करते हुए बनारस पहुँच चुके थे। उधर दिनेश ने अपनी ही भावी पत्नी का चेहरा तक नहीं देखा था। परंतु अपनी शादी की खुशी उसे बहुत थी। बेटे का विवाह निर्धारित होने के 25 महीने बीत चुके थे। परंतु विवाह के अच्छे लग्न और मुहूर्त की तलाश में ही काफी समय निकल गया था। उस पर साँइला दाई के वृद्ध हो चुके पिताजी भी इसी दौरान चल बसे थे। उनका वार्षिक श्राद्ध कार्य न होने तक विवाह रुक गया था।

             "अब बरसी पूरे होने के बाद पहले महीने में दिनेश सत्रह वर्ष का हो जाएगा। सोलह साल की उम्र में विवाह का चलन भी तो नहीं है।  इसलिए कुछ दिनों तक अवश्य प्रतीक्षा करें।"-- कहते हुए साँइला दाई वधू पक्ष को चिट्ठी लिख चुके थे। परंतु कन्या पक्ष को विवाह की कुछ जल्दी थी। अपनी ज्येष्ठ पुत्री के पहले मासिक धर्म शुरू होने से पहले ही कन्यादान कार्य से निवृत्त होने की प्रबल इच्छा थी माता-पिता के मन में।

             "तब तो इंतजार करना ही पड़ा बरसी न होने तक। अभी मेरी बेटी भी ग्यारह वर्ष की ही तो हुई है।"-- कहकर कन्या पक्ष वाले भी बात को मान चुके थे।

              "आगामी पच्चीस माघ के दिन तिथि के आधार पर दिनेश सत्रह वर्ष चार दिन का हो चुका होगा। पच्चीस माघ का लग्न भी उत्तम है। अतः इक्कीस माघ के दिन तक कन्या पक्ष वाले कृपया बनारस आ पहुँचें। "-- कहते हुए साँइला दाई ने कलैया से तीन कोस भीतर वाले गाँव में रहने वाले अपने भावी सम्धी को पत्र भेजा। साँइला दाई ने अपने घर के नजदीक ही उनके लिए रहने का बंदोवस्त भी कर दिया। ज्यादा दूर तक बारातियों के जाने के हालात भी नहीं थे, क्योंकि उन्हीं दिनों बनारस में हिंदू मुस्लिम दंगे भी हो चुके थे।

                                  ***

               हाँफते-खाँसते हुए पौने पाँच बजे ही दिनेश के पिता घर आ पहुँचे। 

              "दिनेश! अरे ओ दिनेश! सीताराम और हर्के को लेकर तुम उस घर में जल्दी पहुँच जाओ और घर की साफ सफाई में जुट जाओ जल्दी। दो झाड़ू भी लेते जाना और अच्छी तरह से झाड़ू लगाकर पूरे घर की सफाई कर देना। दौड़ कर जाओ दिनेश! दुल्हन वालों के आने से पहले ही लौट आना तुम। याद रखना।" साँइला दाई निर्देश देते हैं। 

               दिनेश को कुछ अच्छा नहीं लगा। एक तो वह दूल्हा सजने जा रहा है। दूसरी ओर उसे ही दुल्हन वालों के रहने वाले घर में झाड़ू लगाने के लिए जाना पड़ रहा है।  और पिताजी का निर्देश है कि दुल्हन वालों के आने से पहले ही लौट भी जाना है। इसका मतलब! अपनी भावी पत्नी को वह आज भी नहीं देख पाएगा।

              दिनेश ने मन ही मन सोचा-- आज तो मैं उसे देख कर ही रहूँगा। चाहे कुछ भी हो जाए। कोई कुछ भी कहे। उसने अपने साथ आए लोगों को घर की साफ-सफाई में लगा दिया।  पहली बार कन्या को देख पाने की संभावना से उसके मन में लड्डू फूटने लगे।

              अभी एक कमरे की सफाई बाकी थी, तभी दिनेश के पिताजी दौड़ते हुए वहाँ आ पहुँचे और बेटे पर चिल्ला उठे--"क्या कर रहा है तू यहाँ? उल्लू कहीं का! सारे आ चुके हैं।" 

             "आपने ही तो झाड़ू लगाने भेजा था यहाँ? और अभी सफाई भी पूरी कहाँ हुई है?"

             "अरे मूर्ख! अपने भावी दामाद को घर की सफाई में लगते हुए देख क्या कहेंगे लोग? तुझे पहले ही बताया था न, उनके आने से पहले ही घर लौट जाना। जल्दी भाग यहाँ से।... आगे से नहीं, पीछे के दरवाजे से। ध्यान रखना, कोई तुम्हें न देखे।"

              "पीछे से कैसे जाऊँ? वहाँ तो दीवार है।"

              "ज्यादा बहाने न बना। दीवार को लाँघ कर जा।..... अभी भी तू यहीं है? अरे पंडित जी! इसे जरा उस दीवार पर चढ़ा देना जल्दी।... अरे दिनेश! जरा होशियारी से उतरना दीवार से।"

              आखिर उसे जाना ही पड़ा। दीवार लाँघने के बाद मन-ही-मन गुस्से में भरते हुए वह अपने घर की ओर जाने लगा। ढाई-तीन वर्ष पहले परसौनी में उसके पिताजी ने उस लड़की को सिर्फ चड्डी पहन कर रास्ते में चलते हुए देखा था। तभी उन्होंने सोचा था, "यह तो मेरी बड़ी बहू बनने लायक है। इसके घर वालों से बात करनी पड़ेगी।" वह जब झाड़ू लगा रहा था, यही सारी बातें उसके दिमाग में आ रही थीं। सोच रहा था, लड़की वाले जब उस घर में प्रवेश करेंगे, उसी दौरान दरवाजे की ओट से लड़की को वह जरूर देखेगा। परंतु उसकी यह इच्छा मन में ही रह गई। 

                                   ***

            दिनेश के सारे बाल आज सफेद हो चुके हैं। उसकी पत्नी के भी आधे बालों में भी चाँदी की चमक दिखने लगी है। रुपहले दिखने लगे हैं।  दिनेश को लिखने-पढ़ने से ही कभी फुर्सत नहीं है। और उसकी पत्नी? वह अपने पोते-पोतियों की तुतलाती आवाज सुनकर उन्हीं के बीच रम रही होती है। उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास करती है। उनके माता-पिता जब ऑफिस चले जाते हैं, तब उनकी देखभाल करती है। उनकी परवरिश में वह आनंदित होती है।

            पैसों के बिना निस्सार इस संसार में अपने हाथ खाली होने की पीड़ा को भी वे दोनों पत्थर बनकर सहते हैं।  घर चलाने वाली उसकी पत्नी ऐसे हालातों में अक्सर दिनेश के सामने आकर आँसू बहाती है और दुखड़ा रोती है। दिनेश के पास भी इस स्थिति का कोई  समाधान नहीं है। वह पत्थर की मूर्ति बनकर सुनता भर है।

             "...मेरे पास कुछ हो तो मैं कुछ दूँ! मैं कहाँ से लाऊँ खाना इस घर में? इस घर का चाल-ढाल यही है। कुछ नहीं कर सकती अब मैं। मेरा बस चलता तो अब तक मैं....।" दिनेश की पत्नी की रोज की यह बड़बड़ाहट कमजोर पड़ती जाती है। वह अपनी कलम से कागज में कुछ लिखने लग जाता है, हमेशा की तरह। आजकल ऐसे हृदयविदारक दृश्य दुनिया में चारों तरफ हर कहीं दिखते हैं। पत्नी की और अपने ही घर की ऐसी पीड़ा भी आज दिनेश को बहुत ज्यादा तकलीफ नहीं देती। 

                                ***

                  दिनेश को अस्सी साल पहले के वे दिन दोबारा याद आते हैं। रीता का चेहरा देखने भर का वह इंतजार... पिता का पहुँचना... किसी चोर की भाँति दीवार फाँद कर अपने घर को लौटना... उसके तीन दिन बाद बारात सहित साँइला दाई के घर से विदा होना... और भी बहुत कुछ।

               बारात में नेपाल श्री3 के पुत्र भी सहभागी थे, जो काफी रौबदार स्वभाव के थे। वे एक विख्यात आर्मी जनरल थे। साथ में उनकी फ्रांसीसी जीवनसंगिनी भी थी। बारात के मुख्य अथवा वरिष्ठ व्यक्ति के रूप में वे दोनों दो घोड़ों वाली बग्गी से सौ गज की दूरी पर स्थित गंतव्य तक निकले थे। 

             लग्न की बेला हुई थी। पंडित जी मंत्र उच्चारण कर रहे थे और दुल्हन के पिता उसे दोहरा रहे थे-- "दूरदेशागतो भद्र: शांतिकः प्रियदर्शन। कालक्ष्येपो न कर्तव्य: लग्न बेला प्रवर्तते।।"

            अच्छी तरह संस्कृत समझने वाले दिनेश को पंडित जी के द्वारा उच्चरित मंत्र ने मुग्ध किया। सोचने लगा-- मैं शांत और सुंदर दिखता हूँ... प्रियदर्शन हूँ... लग्न के समय दुल्हन को देख पाऊँगा...  समय गँवाना नहीं है...। उत्साह के साथ वह वरण सामग्री-- नारियल, छतरी, जूते, अशर्फी आदि प्रदान करता जा रहा था। कितने मजेदार और प्यारे क्षण थे वो...प्यारे और आनंददायी क्षण। 

              वरण कार्य की समाप्ति हुई। उधर शामियाने में विख्यात गायिका सिद्धेश्वरीबाई अपने तानपुरा में स्वर मिला रही थी। उतने ही विख्यात तबल्ची कंठे महाराज भी चाँदी के छोटे से हथौड़े से तबले पर चोट करते हुए बोल मिला रहे थे।

              "कन्यादान की बेला हो गई है। दूल्हे को बुलाने आए हैं। क्या उसे जाने की अनुमति देंगे?" साँइला दाई ने विनम्रता पूर्वक जर्साब(जनरल साहब) से अनुमति माँगी। 

              मखमली गलीचा आच्छादित सोफे में अपने साथ बैठे हुए दिनेश से जनरल साहब ने कहा-- "चलो दूल्हे राजा, दुल्हन के पास तुम्हारे बैठने का समय आ गया है। जाओ, जाओ।" दिनेश को यज्ञमंडप के निकटस्थ कन्यादान वाले पलंग तक पहुँचया  गया।

            "दुल्हन को भी ले आओ यहाँ। देर हो चुकी है। विवाह का लग्न बीता जा रहा है।" विवाह संपन्न कराने के लिए ही काठमांडू से निमंत्रित किए गए श्रीरंग गुरु ने दुल्हन के पिता जी से कहा। श्रीरंग गुरु से दिनेश बहुत डरता था। चारों वेदों के प्रखर ज्ञाता, नैष्ठिक पंडित श्रीरंग जी ने पाँच वर्ष की उम्र में ही दिनेश का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया था। 

              अब तो दुल्हन जल्दी ही लाई जाएगी... कैसी है वह?... कैसी दिखती होगी?... जल्दी ही देख पाऊँगा मैं उसे अब... दिनेश सोच ही रहा था, ऐसे में सुनहरे किनारीदार लाल रेशमी साड़ी में लिपटी एक गठरी अपनी पीठ में ढोते हुए एक महिला आई और उस गठरी को पलंग के दाहिनी ओर रख दिया।  कन्यादान के समय पढ़े जाने वाले मंत्र पढ़े जाने लगे। दिनेश उस गठरी को देखकर सोचने लगा-- "क्या इसी गठरी के भीतर दुल्हन है? या दुल्हन को लाने से पहले विवाह के लिए जरूरी सामानों की कोई गठरी यहाँ लाकर रख दी गई है?" गठरी में दुल्हन के हो सकने की कल्पना मात्र से उसका चेहरा लाल हो गया। कान-गाल गर्म होने लगे। पूरा शरीर ही गर्म हो रहा था। यही नहीं उसका दिल भी जोर-जोर से धड़कने लगा था।

             मंत्रों की आवाज आ रही थी। ऐसे में उस गठरी के भीतर कुछ चहल-पहल दिखाई दी। दिनेश सोचने लगा--यहाँ तो सच में ही कोई है। कहीं दुल्हन ही तो नहीं? लेकिन उसका चेहरा क्यों नहीं दिखाई दे रहा?  मध्य रात्रि की ओर बढ़ती जा रही उस रात में वह कुछ देख न पाया, न कुछ समझ ही पाया। कन्यादान के मंत्रों का उच्चारण चलता रहा। वर-वधू के पाँव पखारने के लिए उनके आसपास ही दुल्हन वालों की भीड़ जमा होने लगी। वर-वधु के जूते-मोजे उतारे जाने लगे। तभी दिनेश ने देखा कि दुल्हन के पाँव और घुटनों के निचले हिस्से कितने गोरे और सुंदर थे। पाँवों में पहने हुए चाँदी के पाजेबों के कारण उसके पैर और भी सुंदर दिख रहे थे। दिनेश सोचने लगा, "दुल्हन भी अवश्य प्रियदर्शिनी होगी। परंतु मैं अभागा अब तक उसका चेहरा देख न पाया। कितनी लंबी घूँघट पहन रखी है इसने!"

                 स्वयंवर के समय दुल्हन को पोते-तिलहरी (नेपाली परंपरा अनुसार विवाहित महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला कंठहार) पहना देना पड़ता है। मन ही मन उसका कोई सुंदर-सा नाम रखना पड़ता है। दूल्हे को दुल्हन की छाती स्पर्श करनी पड़ती है। इन बातों की जानकारी दिनेश को पहलै से ही थी। वह सोचने लगा, तब तक तो पता हो ही जाएगा कि दुल्हन दिखती कैसी है। दुल्हन की छाती स्पर्श करने के ख्याल से ही वह शर्म से लाल होता जा रहा था।

              "दुल्हन को पोते (कंठहार) पहनाने का समय आ गया..."

               दिनेश ने पोते पहना तो दिया, लेकिन घूँघट के ऊपर से। घूँघट नीचे तक सरका हुआ होने के कारण इस बार भी वह उसका चेहरा देख न पाया। 

               "दूल्हे को दुल्हन का नाम रखना है..."

               "क्या नाम रख रहे हो बाबू?"-- सारे हँसने लगे। लेकिन दिनेश ने हफ्तों पहले ही अनगिनत नामों में से एक नाम सोच रखा था  दुल्हन का-- 'रीता'।

               "अब दूल्हे को दुल्हन की छाती स्पर्श करनी है..."

               इस घड़ी की आकस्मिकता से वह चौंक गया। सोचने लगा-- चारों ओर की भीड़ उसे कैसे देख रही होगी? कनखियों से वह भीड़ की ओर दाएँ-बाएँ देखने लगा। सभी हँस रहे थे।

              "दुल्हन की छाती स्पर्श करो..." फिर आवाज आई।

              दिनेश असमंजस में था। दुल्हन की असमंजसता को भी वह भाँप रहा था। वह भी सकपका रही थी। दिनेश किसी तरह घूँघट की ओर हाथ ले ही गया था कि पंडित जी की आवाज आई-- "ठीक है। हो गया... अब..."

             दिनेश को मन ही मन गुस्सा भी आ रहा था पंडित जी पर।हुआ कुछ भी नहीं, अभी घूँघट उठाया ही नहीं था! पंडित जी ने ऐसे ही कैसे बता दिया कि हो गया? कैसे हैं ये पंडित जी? वह सोच रहा था। लेकिन छाती स्पर्श के उस क्षण की कल्पनामात्र से वह शर्मिंदगी भी महसूस करने लगा। शर्म से उसका चेहरा लाल हो गया।

             इसी तरह विवाह मंडप के सारे कर्मकांड प्रातः चार बजे तक संपन्न हो चुके थे। नींद के मारे दिनेश की आँखें भारी हो रही थीं। दुल्हन की घूँघट गिरी हुई न भी हो तो भी उसके चेहरे को देखने-निहारने की स्थिति में अब वह नहीं था। 

             अपने विवाह के उन अविस्मरणीय क्षणों की पचासवीं और साठवीं जयंती मनाने की सोच में था दिनेश। परंतु वे दिन आए और बीत भी गए। उसके बाद के 10 वर्ष भी और बीत गए। उसकी इच्छाएँ मन में ही रह गईं। वह इसका प्रबंध न कर सका। सच कहें तो उसे लिखने के कार्य से ही कभी फुर्सत न मिली। 

             कलम की नोक से मोती के दाने के समान अक्षर जब धीरे-धीरे शब्द, वाक्य, अनुच्छेद बनकर अर्थपूर्ण बनते जाते, जीने का वास्तविक आनंद इन्हीं बातों में पाता था दिनेश। लिखने के आनंद की तुलना में आनंद के दूसरे स्रोत उसे फीके लगते थे। किसी दूसरे किस्म के आनंद या खुशी के लिए इंतजार कर सकता था वह, लेकिन लिखने के आनंद की प्रतीक्षा नहीं कर सकता था। निमेष भर के लिए भी अपनी कलम में स्याही सूखने नहीं देता था वह। कलम की नोक से एक सुंदर सा वाक्य अथवा काव्य पंक्ति निकलने के बाद वह अपनी कलम को चूमता है।... तब उसे याद आता है वह क्षण जब विवाह होने के 20 वर्ष पश्चात पहली बार रीता को बाहों में भर कर उसने उसके गाल चूमे थे। उन क्षणों की याद करते हुए वह विभोर हो जाता है।

                 फिर भी अपने विवाह की अस्सीवीं जयंती तो मनानी है ही। निमंत्रण पत्र भेजे जा चुके हैं चारों तरफ। उधर रीता को शर्मिंदगी महसूस हो रही है। हमारी शादी की बात लोगों को इस तरह बार-बार याद दिलाने की भी क्या जरूरत? वह सोचती है।

              "....मधु-विवाह के दिन तो मैं सबके सामने चुंबन लूँगा तुम्हारा रीता!"-- इतना क्या कहना था दिनेश का, गुस्से में चिल्लाते हुए रीता ने आसमान सिर पर उठा लिया।

                                   ***

                विवाह से पहले ही दिनेश ने यह बात सुनी थी कि पति नि:संकोच पत्नी का चुंबन ले सकता है। घर का सारा काम समाप्त होने के बाद ज्यादातर अतिथि विदा हो चुके थे। घर की और आस पड़ोस की कुछ दीदी-बहनें दिनेश से हँसी-मजाक कर रही थीं। किसी तरह उन सबसे छुटकारा पाकर जब वह अपने कक्ष में पलंग तक पहुँचा तो देखता है कि वहाँ दुल्हन नहीं है। पलंग के बजाय पलंग के निकट ही जमीन पर बिछाए गए बिस्तर पर दुल्हन निद्रामग्न थी। पिछले दिन विनिद्र रात्रि गुजारने के कारण शायद उसे जोरों की नींद लगी होगी।

              दिनेश अजीब मुश्किल में था। विवाह पश्चात की पहली रात्रि। करे भी तो क्या करे? सोचने लगा-- उसे जगाऊँ? या सिर्फ चुंबन  लूँ? अभी-अभी सोई होगी। पिछले रात की, रात भर की नींद है। जगाए भी तो कैसे? जगाए बिना धीरे से और हल्के हाथों से उसे उठाकर पलंग पर सुलाने के बारे में भी सोचा उसने। लेकिन साहस नहीं हुआ। वह खुद बहुत दुबला-पतला था। उसे उठा भी कैसे पाता? अचानक जागकर और डरकर उसने चिल्ला दिया तो! सोचा-- चुंबन तो बाद में ही भी लिया जा सकेगा।

            उसे कोई उपाय न सूझा। अतः कमरे की बत्ती जला ली उसने और दरवाजा खुला ही छोड़कर हाथ में कोई किताब लेकर पढ़ने लगा। कमरे में इस समय बत्ती जलते देख दीदियों में कोई आएगी और दिनेश की समस्या को समझ कर रीता को पलंग पर भेज देगी, यह सोचकर उसने यह तरकीब निकाली थी। उसकी तरकीब काम कर गई। दूल्हा-दुल्हन के कमरे में जलती बत्ती देखकर दुल्हन की एक रिश्तेदार बहन वहाँ आई और दुल्हन को उठाकर पलंग पर सुला दिया, रजाई ओढ़ा दी और बत्ती बुझा कर बाहर निकल गई। उसके बत्ती बुझा कर निकलने के संकेत को वह समझ गया और वह भी पलंग पर जाकर बिना रजाई ओढ़े ही कुछ देर तक पड़ा रहा।

             पलंग के दूसरे छोर पर रीता निद्रामग्न थी। इधर दिनेश को किसी तरह नींद नहीं आ रही थी। दुल्हन ने करवट बदली। "क्या जाड़ा हुआ तुम्हें?" कँपकँपाती आवाज के साथ उसने पूछ कर देखा। कोई जवाब नहीं आया तो रजाई से उसका पूरा शरीर ढकने की कोशिश की। फिर बाईं कोहनी तकिया पर अड़ाते हुए और हथेली पर चेहरा टिकाते हुए रजाई में ढकी हुई दुल्हन की ओर देखने लगा। वह अपेक्षा कर रहा था कि नींद में ही सही कभी तो उसका चेहरा रजाई से बाहर निकलता वह देख पाएगा। लंबे समय तक वह इसी प्रतीक्षा में था, परंतु उसे पता नहीं चला कब उसकी आँखें लग गईं। 

                                     ***

           "क्या सोते ही रहोगे? कितना सोते हो तुम?"-- अगले दिन सुबह डाँटते हुए दीदी ने दिनेश को जगाया। जगते ही उसने अपने  पलंग पर नजरें दौड़ाईं। पलंग खाली थी। मन मसोस कर रह गया वह। खुद पर गुस्सा भी आ रहा था उसे। सोच रहा था, अपनी ही पत्नी का चेहरा मैं अब तक देख न पाया, जबकि दो रात हो चुके एक ही पलंग पर सोते हुए। मुझे नींद क्यों आ जाती है इतनी जल्दी? अब पछताने से क्या होगा? 

                    "अरे दिनेश! कैसी है दुल्हन? सुंदर है न? पसंद है तुम्हें? क्या-क्या बातें कीं दोनों ने रात भर? सोते नहीं हो क्या? आँखें गड्ढे में चली गई हैं!" बड़ी दीदी ने कई सवाल पूछ लिए एक साथ हँसी-मजाक के लहजे में।

                       "पता नहीं है मुझे, कैसी है वह। सुंदर है या नहीं, नहीं जानता मैं। अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ उसका चेहरा।" उसके शब्दों में दुल्हन को अबतक न देख सकने की असंतुष्टि स्पष्ट हो रही थी।

                 "माँ जानना चाह रही थी कि तुम्हें दुल्हन कैसी लगी। बताओ तो सही।"

                       "अरे! बताया न मैंने। अब तक नहीं देखा है मैंने उसका चेहरा। बात करने के बारे में तो पूछो ही मत। और वह? रात भर रजाई के भीतर मुँह छिपाकर कैसी गहरी नींद सोती है वह। और मैं कुछ पलों तक के लिए नींद नहीं ले पाता। और सुबह नींद आ ही रही होती है कि..." 

                   "और तुम क्या चाहते हो? देर सुबह तक दुल्हन सोई रहे बिस्तर पर तुम्हारे साथ, तुम्हारे न जगने तक? बेचारी! अरे, विवाह मंडप में कल घूँघट उठा कर भी नहीं देखा तुमने उसे?"

               "तुम सब जिस तरह से हँस रहे थे, कैसे देख पाता? गले के हार तक ही नजरें गईं थीं कि...." 

               "अरे! बुद्धू कहीं के। रात भर दुल्हन के साथ सोते हो। न अब तक उसका चेहरा देखा है और न उससे बात ही की है। थोड़ा पैर दबा कर खुश करते उसे! यह भी कोई सिखाने की बात है बुद्धू?"

                 "पैर दबाने की बात करती हो तुम? उसके शरीर को छुआ भी नहीं मैंने। जाड़ा हुआ होगा उसे, यह सोच कर, और खुद जाड़ा सहकर सारी रजाई ओढ़ा दी उसे। लेकिन वह जगी तक नहीं। तो मैं क्या करूँ? रात भर जाड़े से काँपता रहा मैं।"

           "तो ठीक है! तुम्हें दुल्हन का चेहरा देखने का मौका मिल जाएगा। अभी पानी से भरे परात में मछली छिपाने, पकड़ने और छीनने की रस्म होगी। उस समय उसके हाथों से मछली जरूर  छिनना । और तब घूँघट उठा कर चेहरा भी देख लेना अच्छी तरह।  फिर मत बताना, मुझे कोई मौका ही नहीं मिला उसे देखने का।" यह बता कर हँसते हुए दीदी चली गई। 

                    विवाह तो तो दो व्यक्तियों के बीच होता है, परंतु पूरा परिवार प्रसन्न होता है। सिर्फ परिवार ही क्यों, पूरा गाँव रम रहा होता है। दूल्हा-दुल्हन(वर-वधू) को देखने के लिए आने वालों की भीड़ होती है। कोई कहीं से भी उन्हें देखने के लिए आए, कोई रोक-टोक नहीं होती। 

            दूल्हा-दुल्हन के बीच में बड़े-से परात में पानी भरकर रखा गया और मछली छिपाने-पकड़ने  की रस्म की शुरूआत हुई। पहली पंक्ति में चारों ओर घेरा लगाकर घर-परिवार के ही बहुत सारे बच्चे और दीदी-बहनें जमा हो गईं। दुल्हन के पास भी उसके सगे-सबंधी  जमा हुए। गाँव के सभी उन्हीं के चारों ओर भीड़भाड़ के साथ खड़े होकर तमाशा देखने लगे। 

               दुल्हन अभी भी घूँघट के भीतर मुँह लटकाए इस तरह बैठी हुई थी कि आज भी दिनेश उसका चेहरा नहीं देख पाया।

                 दुल्हन की छिपाई हुई मछली दिनेश को मिली। दिनेश की छिपाई हुई मछली दुल्हन को मिल गई। वह भी दो-दो बार। इसी बीच दिनेश ने देखा कि बहन अपनी भाभी के कानों में फुसफुसाकर कुछ कहती है। इस बार दुल्हन ने परात से हाथ नहीं निकाला। परात में पानी के बीच चारों ओर हाथ घुमाकर इस बार दिनेश को मछली हाथ नहीं लगी। अचानक उसे दीदी की बताई हुई बात याद आई। उसने पानी के भीतर दुल्हन के हाथ टटोले। दुल्हन के दोनों हाथों को अच्छी तरह से पकड़ लिया और फिर एक उंगली से उसके हाथ की नाड़ियों में स्पर्श कर जैसे उसने उसे कुछ संकेत-सा किया।

              परात की ओर आँखें गढ़ा कर देख रही दुल्हन का चेहरा आश्चर्य की मुद्रा में दिनेश की ओर उठा और अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से वह दिनेश को देखने लगी।  दिनेश ने उसके चेहरे को पहली बार, कुछ पल ही सही, जी भर कर देखा। इस दौरान दुल्हन की मुट्ठी कमजोर हो गई थी। दिनेश ने उसके हाथों से मछली छीन ली। रस्म पूरी हो चुकी थी। दुल्हन फिर घूँघट के भीतर सिर झुका कर बैठी रही।

               कुछ ही पलों के लिए एक-दूसरे को दोनों ने परस्पर देखा था और दोनों ने अपनी-अपनी नजरें झुका ली थीं। वे पल और दुल्हन की वह दृष्टि दिनेश आज भी नहीं भूला पाया है। रीता की उस क्षण की  वह जादुई दृष्टि और वह सुंदरता.... उसकी वे दो बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें...उसे जीवन भर, पिछले 70-80 वर्षों से उसे लुभाती आ रही  हैं। उसे आकर्षित करती आ रही हैं। आज तक उसे हर क्षण याद हैं प्रियदर्शन के वे मधुुर क्षण...। हृदय के हर स्पंदन में उस प्रथम दृष्टि की पलकों का नि:स्वर संगीत प्रतिक्षण प्रतिध्वनित होता आया है।

                  अपने मधु-विवाह के दिन की प्रसन्नता के अवसर पर अपनी पत्नी को वह क्या कहे? किन शब्दों में वह अपना विचार व्यक्त करे? वह सोच रहा था। कई वाक्य, कई काव्य पंक्तियाँ....लिख लिखकर वह उन्हें फिर काटता जा रहा था। 'तेहिनो दिवसा गताः' भवभूति की यह पंक्तियाँ उसके सम्मुख हैं।  परंतु ये शब्द तो ग्यारह सौ वर्ष पुराने हो चुके। आज के लिए कौन से शब्द हों? क्या इन्हीं शब्दों के आगे कुछ और जोड़ दूँ? कि... जीवन में अच्छे दिन आए और आते रहेंगे आगे भी...

                 "हमारे वे दिन बीत गए!... और अच्छे दिन आए... और भी अच्छे दिन आएँगे... आते रहेंगे...  हमारे विवाह की और जयंतियाँ भी इसी तरह और आनंद के साथ आएँगी। उस दिन तुम और भी सुंदर दिखोगी... और भी प्रियदर्शिनी... हाँ, हमारा फिर विवाह होगा... और इस बार सबके सामने घूँघट उठा लूँगा और तुम्हारा सुंदर-सा मुखड़ा निहारुँगा... और सभी के सम्मुख लूँगा चुंबन... इन शांत, सहिष्णु आँखों में अपनी प्रशांत दृष्टि से..." दिनेश अपनी डायरी में लिखता जा रहा था।

           "दादा जी, दादी माँ यही साड़ी पहनेगी न परसों? वह पूछ रही है। बताओ न दादा जी!" पोती यासमीन दिनेश के कक्ष में आकर पूछने लगी। दिनेश पुराने क्षणों में खो गया। वही लाल साड़ी... कन्यादान की वह रात... एक बालिका को लाल साड़ी वाली गठरी में बाँधकर उसके पलंग के निकट रखा जाना... यही तो है वह साड़ी!... भुला नहीं है वह कुछ भी उसने। इसी लाल साड़ी की घूँघट के भीतर परात में मछली छीनते क्षण उठी हुई रीता की वो चकित दृष्टि... वो कजरारी दो बड़ी-बड़ी आँखें... उन यादों को तरोताजा करती यह लाल साड़ी...

                  यही तो थी वह साड़ी। और सभी साड़ियाँ बाँटते बाँटते खत्म हो गई थीं। और यह साड़ी... बाकी है अभी तक यह... इतने वर्षों के बाद भी उतनी ही सुंदर, मोहक, यौवनपूर्ण, कोमल, आकर्षक और प्रियदर्शन... न जाने क्या क्या!

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