'माँ' शीर्षक पर कुछ कविताएँ

 


        
(1)  माँ की परिभाषा
                                                                                    

हम एक शब्द हैं तो वह पूरी भाषा है
हम कुंठित हैं तो वह एक अभिलाषा है
बस यही माँ की परिभाषा है।

हम समुंदर का हैं तेज तो वह झरनों का निर्मल स्वर,
हम एक शूल हैं तो वह सहस्त्र ढाल प्रखर,
हम दुनिया के हैं अंग, वह उसकी अनुक्रमणिका है,
हम पत्थर के हैं कण वह कंचन की कनिका है,
हम बकवास हैं वह भाषण है,
हम सरकार हैं वह शासन है,
हम लव कुश हैं वह सीता है,
हम छंद हैं वह कविता है,
हम राजा हैं वह राज है,
हम मस्तक हैं वह ताज है,
वही सरस्वती का उद्गम है रणचंडी और नासा है,
हम एक शब्द हैं तो वह पूरी भाषा है,
बस यही माँ की परिभाषा है।
बस यही माँ की परिभाषा है।

                             --- कवि: शैलेश लोढा

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(2) मेरी प्यारी माँ

जब आँख खुली तो अम्‍मा की गोदी का एक सहारा था।
उसका नन्‍हा-सा आँचल मुझको भूमण्‍डल से प्‍यारा था।।
उसके चेहरे की झलक देख चेहरा फूलों सा खिलता था।
उसके स्‍तन की एक बूँद से मुझको जीवन मिलता था।।

हाथों से बालों को नोंचा पैरों से खूब प्रहार किया।
फिर भी उस माँ ने पुचकारा हमको जी भर के प्‍यार किया।।
मैं उसका राजा बेटा था वो आँख का तारा कहती थी।
मैं बनूँ बुढापे में उसका बस एक सहारा कहती थी।।

उंगली को पकड़ चलाया था पढ़ने विद्यालय भेजा था।
मेरी नादानी को भी निज अन्‍तर में सदा सहेजा था।।
मेरे सारे प्रश्‍नों का वो फौरन जवाब बन जाती थी।
मेरी राहों के काँटे चुन वो खुद गुलाब बन जाती थी।।

मैं बड़ा हुआ तो कॉलेज से इक रोग प्‍यार का ले आया।
जिस दिल में माँ की मूरत थी वो रामकली को दे आया।।
शादी की पति से बाप बना अपने रिश्‍तों में झूल गया।
अब करवाचौथ मनातगयहूँ माँ की ममता को भूल गया।।

हम भूल गये उसकी ममता मेरे जीवन की थाती थी।
हम भूल गये अपना जीवन वो अमृत वाली छाती थी।।
हम भूल गये वो खुद भूखी रह करके हमें खिलाती थी।
हमको सूखा बिस्‍तर देकर खुद गीले में सो जाती थी।।

हम भूल गये उसने ही होठों को भाषा सिखलायी थी।
मेरी नींदों के लिए रात भर उसने लोरी गायी थी।।
हम भूल गये हर गलती पर उसने डाँटा समझाया था।
बच जाउँ बुरी नजर से काला टीका सदा लगाया था।।

हम बड़े हुए तो ममता वाले सारे बन्‍धन तोड़ आए।
बंगले में कुत्‍ते पाल लिए माँ को वृद्धाश्रम छोड़ आए।।
उसके सपनों का महल गिरा कर कंकर-कंकर बीन लिए।
खुदग़र्जी में उसके सुहाग के आभूषण तक छीन लिए।।

हम माँ को घर के बँटवारे की अभिलाषा तक ले आए।
उसको पावन मंदिर से गाली की भाषा तक ले आए।।
माँ की ममता को देख मौत भी आगे से हट जाती है।
गर माँ अपमानित होती धरती की छाती फट जाती है।।

घर को पूरा जीवन देकर बेचारी माँ क्‍या पाती है।
रूखा सूखा खा लेती है पानी पीकर सो जाती है।।
जो माँ जैसी देवी घर के मंदिर में नहीं रख सकते हैं।
वो लाखों पुण्‍य भले कर लें इंसान नहीं बन सकते हैं।।

माँ जिसको भी जल दे दे वो पौधा संदल बन जाता है।
माँ के चरणों को छूकर पानी गंगाजल बन जाता है।।
माँ के आँचल ने युगों-युगों से भगवानों को पाला है।
माँ के चरणों में जन्‍नत है गिरिजाघर और शिवाला है।।

हर घर में माँ की पूजा हो ऐसा संकल्‍प उठाता हूँ।
मैं दुनिया की हर माँ के चरणों में ये शीश झुकाता हूँ।।
                                      
                                            --- कवि: डॉ. सुनील जोगी

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    (3)  माँ

बचपन में अच्छी लगे यौवन में नादान।
आती याद उम्र ढले क्या थी माँ कल्यान।।

करना माँ को खुश अगर कहते लोग तमाम।
रौशन अपने काम से करो पिता का नाम।।
विद्या पाई आपने बने महा विद्वान।
माता पहली गुरु है सबकी ही कल्यान।।

कैसे बचपन कट गया बिन चिंता कल्यान।
पर्दे पीछे माँ रही बन मेरा भगवान।।
माता देती सपने है बच्चों को कल्यान।
उनको करता पूर्ण जो बनता वही महान।।

बच्चे से पूछो जरा सबसे अच्छा कौन।
उंगली उठे उधर जिधर माँ बैठी हो मौन।।
माँ कर देती माफ़ है कितने करो गुनाह।
अपने बच्चों के लिए उसका प्रेम अथाह।।
                             
                               ----- कवि: सरदार कल्याण सिंह

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                (4) यह कदंब का पेड़  
            (माँ की ममता पर एक कविता)

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बाँसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हें बुलाता।।
सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती।
मुझे देखने काम छोड़ कर तुम बाहर तक आती।।
तुमको आता देख बाँसुरी रख मैं चुप हो जाता।
पत्तों में छिपकर धीरे से फिर बाँसुरी बजाता।।
गुस्सा होकर मुझे डाँटती, कहती “नीचे आजा”।
पर जब मैं ना उतरता, हँसकर कहती “मुन्ना राजा”।।
“नीचे उतरो मेरे भैया तुम्हें मिठाई दूँगी।
नए खिलौने, माखन-मिसरी, दूध मलाई दूँगी ”।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।

                                  --- कवि: सुभद्रा कुमारी चौहान

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(5) माँ तो आखिर माँ होती है

माँ तो आखिर माँ होती है
मेरी या तेरी या फिर किसी और की
कैसे माँ से भिन्न भला माँ हो सकती है
सोलह आने सच है -
माँ तो आखिर माँ होती है
 
जन्म-काल से पहले के उन नौ मासों में
बंधन माँ से जुड़े हमारे कई बरसों के
काटे नहीं कटते, नहीं टूटते किसी तरह से
कहता है दिल -
माँ तो आखिर माँ होती है
 
माँ, तुम राजाओं की माँ
तुम पीर-फ़कीरों की भी माँ 
कैसे चलता जग बिन माँ के
कुछ झूठ नहीं कि -
माँ तो आखिर माँ होती है
 
माँ, आज तुम्हारे जाने की बेला आई
मन विह्वल है, भावुक है मेरा विचलित है
कल किसे कहूँगा जाकर माँ सपने अपने 
यह मान लिया कि -
माँ तो आखिर माँ होती है

दुख-संकट में, बचपन में, जीवन के यौवन पर
वह एक  सहारा सदा तुम्हारा क्या कम था
भीषण दुख की अग्नि में अब जलता है मन
छूट गया है साथ कि -
माँ तो आखिर माँ होती है
 
अब कौन सुनेगा जग में वह मेरे सपने
तुम कहाँ चली माँ छोड़ हमें हम थे अपने
कहीं  दिया बुझ गया कोई तुम्हारे जाने से
अंधकार में डूबा मन कि -
माँ तो आखिर माँ होती है।

                          --- कवि: अभय शर्मा

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(6) माँ

माँ चूल्हा, धुँआ, रोटी और हाथों का छाला हैं माँ,
माँ जिन्दगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है माँ,

माँ पृथ्वी है, जगत है, धुरी है माँ
माँ बिना इस सृष्टि की कल्पना अधूरी है माँ

तो माँ की यह कथा अनादि है, अध्याय नही है
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है

तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता

तो मैं कविता की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
मैं दुनियाँ की सब माताओं को प्रणाम करता हूँ।

                                         -- कवि: अज्ञात

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(7) घुटनों से रेंगते-रेंगते

घुटनों से रेंगते-रेंगते,
कब पैरों पर खड़ा हुआ,
तेरी ममता की छाँव में,
न जाने कब बड़ा हुआ,

काला टीका दूध मलाई,
आज भी सब कुछ वैसा हैं,
मैं ही मैं हूँ हर जगह,
प्यार ये तेरा कैसा हैं?

सीधा-साधा, भोला-भाला,
मैं ही सबसे अच्छा हूँ,
कितना भी हो जाऊँ बड़ा,
“माँ ” मैं आज भी तेरा बच्चा हूँ।

              --- कवि: अज्ञात

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(8) माँ नहीं होती है जब

माँ नहीं होती है जब
तब वैसे तो कुछ नहीं होता
पिताजी ऑफिस जाते हैं
दादी माला फेरती हैं
मनु कॉलेज जाता है...
सब कुछ होता है
पर जैसै फीका-फीका-सा लगता है
बिना शक्कर की चाय जैसा।
 
माँ नहीं होती है जब
कोई डाँटता नहीं है,
मनु रात को जब देर से लौटता है
तब अधीर होकर बार-बार
खिड़की से कोई झाँकता नहीं है,
घड़ी की सुईयाँ बरछी-तलवार जैसी नहीं हो जातीं,
किसी की व्याकुल आँखों से
अभी गिरा कि अभी गिरेगा
ऐसे अदृश्य आँसुओं की माला नहीं झूलती,

गले में अटके हुए रोने की आड़ में
डाँट को पीकर
कोइ मनु से पूछता नहीं है
"थक गया होगा,
बेटा,
थाली परोस दूँ क्या ?"

माँ नहीं होती है जब
सुबह वैसे ही होती है
पर पूजाघर मैं बैठी दादी को
दिये की बाती नहीं मिलती,
भगवान को बूँदी के लड्डू का प्रसाद नहीं मिलता,
पिताजी को गंजी, बटुआ, चाबी नहीं मिलते,
रसोईघर में से छोंक लगाने की
ख़ुशबू तो आती है
पर उस में
जली हुई सब्ज़ी की गंध
घुल-मिल जाती है,

पंछियों के लिए रखा पानी सूख जाता है
पंछी बिना दाने के उड़ जाते हैं
और तुलसी के पौधे सूख जाते हैं...

माँ नहीं होती है जब
तब वैसे तो कुछ नहीं होता,
यानी
कुछ भी नहीं होता है।

          --- कवि: उषा उपाध्याय

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                  (9) माँ की ममता

    कि लगा बचपन में यूँ अक्सर अँधेरा ही मुकद्दर है
    मगर माँ हौसला देकर यूँ बोली तुम को क्या डर है,

मैं अपनापन ही अक्सर ढूँढ़ता रहता हूँ  रिश्तों में
तेरी निश्छल-सी वो ममता कहीं मिलती नहीं है माँ

गमों की भीड़ में जिसने हमें हँसना सिखाया था
वह जिसके दम से तूफानों ने अपना सिर झुकाया था

किसी भी जुल्म के आगे, कभी झुकना नहीं बेटे
सितम की उम्र छोटी है मुझे माँ ने सिखाया था

भरे घर में तेरी आहट कहीं मिलती नहीं है माँ
तेरी हाथों की नर्माहट कहीं मिलती नहीं है माँ

मैं तन पर ला दे फिरता दुसाले रेशमी
लेकिन तेरी गोदी की गर्माहट कहीं मिलती नहीं है माँ

तैरती निश्छल-सी बातें अब नहीं हैं माँ
मुझे आशीष देने को अब तेरी बाहें नहीं हैं माँ

मुझे ऊँचाइयों पर सारी दुनिया देखती है माँ
पर तरक्की देखने को तेरी आँखें नहीं है बस अब माँ

                                           ---कवि: दिनेश रघुवंशी

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(10) माँ

उसको नहीं देखा हमने कभी
पर इसकी ज़रूरत क्या होगी?
ऐ माँ, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी?

इंसान तो क्या देवता भी आँचल में पले तेरे
है स्वर्ग इसी दुनिया में क़दमों के तले तेरे
ममता ही लुटाएँ जिसके नयन
ऐसी कोई मूरत क्या होगी?
ऐ माँ, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी?

क्यों धूप जलाएँ दुखों की? क्यों ग़म की घटा बरसे?
ये हाथ दुआओं वाले रहते हैं सदा सर पे
तू है तो अँधेरे पथ में हमें
सूरज की ज़रूरत क्या होगी?
ऐ माँ, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी?
उसको नहीं देखा हमने कभी

कहते हैं तेरी शान में जो कोई ऊँचे बोल नहीं
भगवान के पास भी माता तेरे प्यार का मोल नहीं
हम तो यही जाने तुझसे बड़ी
संसार की दौलत क्या होगी?
ऐ माँ, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी?

             -- कवि: मजरुह सुल्तानपुरी

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(11) माँ

माँ की लोरी वो दूध की कटोरी
हाथों की थपकी वो नींद की झपकी

ज़ोर से रोने पर माँ का भाग क़े आना
याद आता है माँ  तेरे हाथों का खाना
माँ का आँचल ओढ़ कर वो छुपना
माँ से कई अटपटे सवाल वो पूछना
उन बचकाने सवालों पर माँ का हँसना
ऐसा लगता है जैसे यह था कोई सपना

मातृ दिवस हर साल इसी तरह आता रहेगा
कोई न कोई माँ पर कविता सुनाता रहेगा

माँ जीवन में बस एक बार मिलती है
ईश्वर से भी ज्यादा माँ को प्यार करना
माँ-बाप को कभी बोझ न समझना।
      
                         --- कवि: अज्ञात

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(12) माँ और ख़ुदा

खुदा हर जगह मौजूद नहीं रह सकता था 

इसलिए उसने माँ बनाई

सैकड़ों बार सुनी है ये कहानी 

लेकिन आगे की कहानी किसी ने नहीं सुनाई

आज मैं सुनाता हूँ …

ऐसा नहीं कि माँ को बना कर खुदा बहुत खुश हुआ या उसने कोई जश्न मनाया 

सच तो ये है कि वो बहुत पछताया..

कब उसका एक एक जादू किसी और ने चुरा लिया वो जान भी नहीं पाया

खुदा का काम था मोहब्बत, वो माँ करने लगी

खुदा का काम था हिफाजत, वो माँ करने लगी 

खुदा का काम था बरकत, वो भी माँ करने लगी 

देखते ही देखते उसकी आँखों के सामने कोई और परवरदिगार हो गया 

वो बहुत मायूस हुआ, बहुत पछताया 

क्योंकि माँ को बनाकर खुदा बेरोजगार हो गया। 

                          --- कवि: मनोज मुंतसिर

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                           (13) माँ का दर्द

माँ, मैं तुझसे प्यार तो बहुत करता हूँ 
बस तेरे लिए वक्त नहीं निकाल पाता
बड़ा आदमी बनना है न मुझे ...
तो बहुत कुछ सहना पड़ता है, बर्दाश्त करना पड़ता है
                            तू समझ रही है न माँ…?

मैं बेचारी क्या समझुँ और क्या बताऊँ?
इतने सारे शब्द कहाँ से लाऊँ?

फिर मैं बताती हूँ...
कभी पेड़ों से मत पूछना कि फल देने में वो क्या क्या सहते हैं
जिसने अपनी कोख से औलाद जन्मी हो उसे मत बताना
कि बर्दाश्त करना किसे कहते हैं
सोचो वो कष्ट जो भीष्म पितामह को शरशय्या पर
मरने में हुआ था...
बदन की सारी हड्डियाँ एक साथ चटक जाएँ तो...
कितना दर्द होता होगा?

बस वही दर्द तुम्हें पैदा करने में हुआ था।

                                      -- कवि: मनोज मुंतसिर

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(14) माँ

माँ, माँ-माँ संवेदना है, भावना है अहसास है,
माँ, माँ जीवन के फूलों में खुशबू का वास है।
माँ, माँ मरुस्थल में नदी या मीठा सा झरना है।
माँ, माँ रोते हुए बच्चों का खुशनुमा पलना है,
माँ,माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है।
माँ, माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है।
माँ, माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ, माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है।
माँ, माँ झुलसते हुए दिलों में कोयल की बोली है,
माँ, माँ मेंहदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है।
माँ, माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ, माँ परमात्मा की स्वंय एक गवाही है।
माँ, माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ, माँ फूंक से ठंडा किया हुआ कलेवा है।
माँ, माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ, माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है।
माँ, माँ चूड़ी वाले हाथों के मजबूत कंधों का नाम है,
माँ, माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है।
माँ, माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ, माँ बच्चों की चोट पर सिसकी है।
माँ, माँ चूल्हा-धुँआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ, माँ जिंदगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है।
माँ, माँ पृथ्वी है, जगत है, धुरी है,
माँ के बिना इस सृष्टि की कल्पना अधूरी है।
तो माँ की ये कथा अनादि है,
ये कोई पूरा अध्याय नहीं है…
… और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है।
माँ का महत्व दुनिया में कम नहीं हो सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता।

         --- कवि: अज्ञात

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(15) माँ

हमारे हर मर्ज की दवा होती है माँ,
कभी डाँटती है हमें, तो कभी गले लगा लेती है माँ,
हमारी आँखों के आँसू, अपनी आँखों में समा लेती है माँ,
अपने होठों की हँसी हम पर लुटा देती है माँ,
हमारी खुशियों में शामिल होकर, अपने गम भुला देती है माँ,
जब भी कभी कठोर लगे, तो हमें तुरंत याद आती है माँ,
दुनिया की तपिश में, हमें आँचल की शीतल छाया देती है माँ,
खुद चाहे कितनी थकी हो,
हमें देखकर अपनी थकान भूल जाती है माँ,
प्यार भरे हाथों से, हमेशा हमारी थकान मिटाती है माँ,
बात जब भी हो लजीज खाने की, तो हमें याद आती है माँ,
रिश्तों को खूबसूरती से निभाना सिखाती है माँ,
लफ्जों में जिसे बयाँ नहीं किया जा सके ऐसी होती है माँ,
भगवान भी जिसकी ममता के आगे झुक जाते हैं
वह सर्वश्रेष्ठ शख्सियत होती है माँ।

                     
                             ---- कवि: अज्ञात

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(16) माँ

माँ, क्या तुम कोई परियों की कहानी हो?
या मेरी कल्पना कोई पुरानी हो?
क्या तुम कोई परियों की कहानी हो?
क्या सचमुच मेरी जिंदगी में तेरा वजूद था?
या बस मेरे सोच के दायरे में सिमटी हो?
या हो कोई मधुर स्वप्न,
जो बस नींदों में बनती हो?
जिससे मेरा भाग्य है वंचित,
तुम वो गोद सुहानी हो,
माँ, क्या तुम कोई परियों की कहानी हो?
अतीत में गूँजती मीठी-सी आवाज हो तुम,
एक धुँधली टिमटिमाती-सी याद हो तुम,
जिसे जी भर के बुला न सकी,
वही प्यारा-सा अल्फाज हो तुम,
मेरे स्कूल के किस्सों, दोस्तों,
पसंद, नापसंद हर चीज से अनजानी हो,
माँ, क्या तुम कोई परियों की कहानी हो?
इतनी कम समझ, इतनी छोटी उम्र थी,
कि मौत के मतलब से भी बेखबर थी,
मैं रोज तेरा इंतजार करती थी,
सबसे तेरा ठिकाना पूछा करती थी,
फिर भ्रम और वास्तविकता वक्त ने बता दिया,
तेरे खालीपन ने मुझे लिखना सिखा दिया।

                          -- कवि: अज्ञात

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(17) माँ का प्यार

माँ और माँ का प्यार निराला,
उसने ही है मुझे संभाला,
मेरी मम्मी बड़ी है प्यारी,
मेरी मम्मी बड़ी निराली,
क्या मैं उनकी बात बताऊँ,
सोचूँ! उन्हें कैसे मैं जान पाऊँ,
सुबह सवेरे मुझे उठाती,
कृष्णा कहकर मुझे जगाती,
जल्दी से तैयार मैं होता,
उसके कारण स्कूल जा पाता,
स्कूल से आते ही खुश होता,
जब मम्मी का चेहरा दिखता,
पौष्टिक भोजन मुझे खिलाती,
गृह कार्य भी पूरा करवाती,
माँ और माँ का प्यार निराला,
पर मैं करता गड़बड़ घोटाला,
जब मैं करता कोई गलती,
समझाने की कोशिश करती,
लुटाती मुझ पर अधिक प्यार,
करती मुझसे अधिक दुलार,
मुझ पर गुस्सा जब है आता,
दो मिनट में उड़ भी जाता,
मेरी मम्मी मेरी जान,
रखती मेरा पूरा ध्यान,
माँ और माँ का प्यार निराला,
उसने ही है मुझे संभाला।

       --- कवि: अज्ञात

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(18) माँ बहुत याद आओगी तुम

माँ मेरी तुझसे इस जगत में है पहचान
माँ तू जिंदगी में  है तो, है मेरी मुस्कान
मैंने माँ कहना ही सीखा बचपन में
माँ मैं तो हूँ तेरा ही, देख ले प्रतिमान
माँ तू ही मेरे लिये ममतामयी दुर्गा
तू ही मेरी शक्ति ,कर मेरा उत्थान
कोटि कोटि नमन करूँ माँ तुझको
तू ही है वीणावादिनी, दे मुझे तू ज्ञान
सार्थक हुआ मेरा जीवन तुझसे माँ
तूझसे ही सीखा वेद और कुरआन
माँ तू तुलसी की रामायण मेरे लिए
माँ तू ही मीरा, ग़ालिब और हो रसखान
तू माँ अँधेरो में मुझे रोशनी देती हुई
तू ही मेरी लिए है वेदों का व्याख्यान
माँ तू ही मेरी पहली गुरु बचपन की
माँ तू ही मेरी आत्मा का है आख्यान
करता माँ तेरी मैं प्रशंसा जमाने में
तू है माँ मेरी भारत माँ जैसी महान
तेरा माँ जगत में है रूप ही अनोखा
तू माँ जगत में है मेरा ही स्वाभिमान
माँ तू मेरी डूबती नैया को पार लगती
तेरे बिना मेरी दुनिया हुई है माँ वीरान
माँ वो तेरी सुरीली मीठी लोरी सुनी है
तू त्रिलोकों में है ,माँ गुणों की खान
तू ही मेरी हिंदी तू ही मेरी गुजराती
तुझ पे मेरी श्रद्धा तू ही मेरा हिंदुस्तान
मुझ अनाथ से हमदर्दी किसी को
गले लगाके कर, माँ मेरा कल्याण
माँ तू बहुत याद आएगी मुझको
मेरी पुकार से गूँजेगा ये सारा जहान।

   ---कवि: अशोक सपड़ा 'हमदर्द'

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(19) माँ, मैं तुमको अब समझने लगी हूँ

तुम्हारे सारे कहे झूठ मैं पकड़ने लगी हूँ
माँ, मैं तुमको अब समझने लगी हूँ

कोई चीज पसंद होने पर भी
'मेरा मन नहीं है' कह कर मना कर देना
‘तुमलोग खा लेते हो तो मेरा पेट भर जाता है'
ऐसा कह कर फेवरेट डिश भी हमें खिला देना
वक्त के साथ तुम्हारी हर आदतें अपनाने लगी हूँ
माँ, मैं तुमको अब समझने लगी हूँ

रिश्तों की डोर कहीं कमजोर न पड़ जाये
यह सोच हर पल हथियार डाल देना
सब जानना-समझना पर फिर भी मौन रह जाना
लब पर झूठी मुस्कान मैं भी सजाने लगी हूँ
माँ, मैं तुमको अब समझने लगी हूँ

घरवालों की फिक्र सबसे पहले और
सबसे आखिर में खुद का सोचना
जाने-अनजाने मैं भी वही सब करने लगी हूँ
माँ, मैं तुमको अब समझने लगी हूँ

घरवालों की खुशियों में ही ढूँढना अपनी खुशी
बिगड़ न जाये बात, यह सोच कर
सच जानते हुए भी चुप्पी साध लेना
तुम्हारी तरह ही मैं भी खामोश रहने लगी हूँ
माँ, मैं तुमको अब समझने लगी हूँ

खुद जिद करके सबकी ख्वाहिशें पूरी करना
'मेरी संदूक में तो बहुत-सी साड़ियाँ पड़ी हैं'
ऐसा कह हर बार खुद के लिए कुछ न लेना
अपनी जरूरतों को सबसे नीचे रखने लगी हूँ
माँ, मैं तुमको अब समझने लगी हूँ।
माँ, मैं तुमको अब समझने लगी हूँ।

                   --- कवि: मोनिका राज

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(20) माँ, तेरी आदत-सी हो गई है मुझको

तेरा रोज़ सुबह मुझे यूँ उठाना,
और मेरा, करवट बदल कर फिर सो जाना,
इन प्यार भरे सिलसिलों की आदत-सी हो गई है मुझको

तेरा मेरे स्कूल से लौटने का इंतज़ार करना,
और मेरा, तुझे देख कर खिल उठना,
इन प्यार भरे छोटे-छोटे लम्हों की आदत-सी हो गई है मुझको

मेरे नखरे करना और
तेरा उन नखरों को देख कर मुस्कुराना,
इन प्यार भरी मुस्कुराहटों की आदत-सी हो गई है मुझको

तेरा मुझे अपने हाथों से खाना खिलाना,
और मेरे माना करने पर
“बस एक निवाला और!” कह कर मुझे बहकाना,
इन प्यार भरे बहकावों की आदत-सी हो गई है मुझको

मेरा तुझे बैठा कर दिन भर के किस्से सुनाना,
और तेरा, बिना किसी शिकायत के सुनते जाना,
इन प्यार भरी बातों की आदत-सी हो गई है मुझको

तेरा रूठ जाना और
मेरा, तुझे अनोखे तरीकों से मनाना,
इन प्यार भरे झगड़ों की आदत-सी हो गई है मुझको

तेरा मुझे सुलाना और
मेरे नींद न आने पर तेरा हाथ पकड़कर झटपट सो जाना,
माँ, तेरी आदत-सी हो गई है मुझको।
माँ, तेरी आदत-सी हो गई है मुझको।

                          --- कवि: एकानिका शाह

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