माखनलाल चतुर्वेदी की कुछ कविताएँ
माखनलाल चतुर्वेदी की
कुछ कविताएँ
(1) हौले-हौले, धीरे-धीरे
तुम ठहरे, पर समय न ठहरा,
विधि की अंगुलियों की रचना--
तोड़ चला यह गूँगा, बहरा।
घनश्याम के रूप पधारे हौले-हौले, धीरे-धीरे,
मन में भर आई कालिन्दी झरती बहती गहरे-गहरे।
तुम बोले, तुम खीझे रीझे, तुम दीखे अनदीखे भाये,
आँखें झपक-झपक अनुरागीं, लगा कि जैसे तुम कब आये?
स्वर की धारा से लिपटी जब गगन-गामिनी शशि की धारा,
उलझ गया मैं उन बोलों में, मैंने तुझको नहीं सँवारा।
चन्दन, चरण, आरती, पूजा, कुछ भी हाय न कर पाया मैं,
तुम किरणों पर बैठ चल दिये, किरणों में ही भरमाया मैं!
पा कर खो देने का मन पर कितना लिखा विस्मरण गहरा!
विधि की अंगुलियों की रचना, तोड़ चला यह गूंगा बहरा।
तुम ठहरे, पर समय न ठहरा, तुम ठहरे, पर समय न ठहरा।।
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(2) ऊषा
यह बूँद-बूँद क्या? यह आँखों का पानी,
यह बूँद-बूँद क्या? ओसों की मेहमानी,
यह बूँद-बूँद क्या? नभ पर अमृत उँड़ेला,
इस बूँद-बूँद में कौन प्राण पर खेला!
लाओ युग पर प्रलयंकरि वर्षा ढा दें,
सद्य-स्नाता भू-रानी को लहरा दें।
ऊषा बोली, दृग-द्वार खोल दे अपने,
मैं लाई हूँ कुछ मीठे-मीठे सपने,
सपनों की साँकल से, रवि का रथ जकड़ो,
युग उठा चलो अंगुलियों पर गति पकड़ो।
मत बाँट कि ये औरों के और ये अपने,
गति के गुनाह, ये मीठे-मीठे सपने।
यह उषा निशा के जाने की अंगड़ाई,
तम को उज्ज्वल कर जब आँखों पर आई!
मैं बोला, चल समेट, तारों की ढेरी!
यह काल-कोठरी खाली कर दे मेरी!
मैं आहों में अंगार लिये आता हूँ,
जग-जागृति का व्यापार लिये आता हूँ।
निशि ने शरमा कर पहला शशि-मुख चूमा,
तब शशि का यह अस्तित्ववान रथ घूमा।
गलबहियाँ दे, जब निशि-शशि छाये-छाये,
जब लाख-लाख तारे निज पर शरमाये।
कलियों की आँखें द्रुम-दल ने तब खोलीं,
जग का नव-जय हो गया कि चिड़ियाँ बोलीं!
इस श्याम-लता में तब प्रकाश के फूल-सा
सूरज आया, विद्रोही उथल-पुथल-सा।
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(3) क्या-क्या बीत रही है
मैंने मारा, हाँ-- मैंने ही मारा है, मारा है,
पथ से जरा बहकते युग को ललकारा है मैंने।
तुम क्या जानो, मेरे युग पर क्या-क्या बीत रही है,
सब इल्जाम मुझे स्वीकृत हैं, किन्तु न ठहरूँगा मैं।
मुझको स्वाँग बनाने का अवकाश नहीं है साथी।
क्या साजूँ श्रृंगार कि उसमें अब कुछ स्वाद नहीं है।
परम सभ्य-सा, सिर्फ सभ्य-सा, या असभ्य-सा जो हूँ,
मैं न खड़ा रह पाऊँगा, पथ जोते आँसू बोते।
मेरा ही युग है, वह कब से मुझे पुकार रहा है;
छनक दुलार रहा है, क्षण में उठ ललकार रहा है।
मेरा युग है, उसकी बातों का भी भला बुरा क्या,
वह पहरा क्यों न दे, कि जब है मेरी अग्नि परीक्षा;
जाओ उससे कहो कि मुझको जी भर-भर कर कोसे,
उथल पुथल में किन्तु मौज से बैठे ताली देवे।
मिट्टी में रोटी ऊगी है, मिट्टी में से कपड़ा,
मिट्टी से संकल्प उठे हैं, मिट्टी से मानवता,
मिट्टी है निर्माणक तरणी, मिट्टी है बलशाली,
मिट्टी शीश चढ़ाओ, मिट्टी से बलिदान उठेंगे,
मिट्टी से हरियाते, मिट्टी के ईमान उठेंगे।
मिट्टी के वृत पर प्राणाधिक अगणित गान उठेंगे।
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(4) झंकार कर दो
वह मरा कश्मीर के हिम-शिखर पर जाकर सिपाही,
बिस्तरे की लाश तेरा और उसका साम्य क्या?
पीढ़ियों पर पीढ़ियाँ उठ आज उसका गान करतीं,
घाटियों पगडंडियों से निज नई पहचान करतीं,
खाइयाँ हैं, खंदकें हैं, जोर है, बल है भुजा में,
पाँव हैं मेरे, नई राहें बनाते जा रहे हैं।
यह पताका है, उलझती है, सुलझती जा रही है,
जिन्दगी है यह, कि अपना मार्ग आप बना रही है।
मौत लेकर मुट्ठियों में, राक्षसों पर टूटता हूँ,
मैं, स्वयं मैं, आज यमुना की सलोनी बाँसुरी हूँ,
पीढ़ियाँ मेरी भुजाओं में कर रहीं विश्राम साथी,
कृषक मेरे भुज-बलों पर कर रहे हैं काम साथी,
कारखाने चल रहे हैं रक्षिणी मेरी भुजा है,
कला-संस्कृति-रक्षिता, लड़ती हुई मेरी भुजा है।
उठो बहिना, आज राखी बाँध दो श्रृंगार कर दो,
उठो तलवारो, कि राखी बँध गई झंकार कर दो।
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(5) तर्पण का स्वर
ना, ना, ना, रे फूल, वायु के झोंको पर मत डोल सलोने,
सोने सी सूरज-किरणों से, पंखड़ियों से बोल सलोने,
सावन की पुरवैया जैसे भ्रंग--कृषक तेरे पथ जोहें,
तेरे उर की एक चटख पर हो न जाय भू-डोल सलोने!
शिर को और शिराओं को युग, रक्त-वहनकारी रहने दो,
मस्तक की रोली अहिवातिन, लाल-लाल प्यारी रहने दो,
मत्था चढ़े कि मत्था उतरे,
चक्र-सुदर्शन-छवि मुरलीधर, दुनिया से न्यारी रहने दो।
वह नेपाल, प्रलय का प्रहरी, भारत का बल, भारत का शिर!
वह कश्मीर कि जिस पर काले-पीले-उजले मेघ रहे घिर!
आज अचानक अमरनाथ के शिर से उतर रही युग-गंगा,
उठो देश, दे दो परिक्रमा, कहती है भैरवी कि फिर-फिर-
माथे की बिन्दी हिन्दी को चलो गोरखाली में बोलें,
वीरों को निर्वीर बनाया उठो आज यह पातक धो लें,
तेवर, तीर, तलवार, ताज से ऊपर तर्पण का स्वर गूँजे,
भू-मण्डल भूदान-पथी उस जादूगर की थैली खोलें!
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(6) पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!
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(7) बलि-पन्थी से
मत व्यर्थ पुकारे शूल-शूल,
कह फूल-फूल, सह फूल-फूल।
हरि को ही-तल में बन्द किये,
केहरि से कह नख हूल-हूल।
कागों का सुन कर्त्तव्य-राग,
कोकिल-काकलि को भूल-भूल।
सुरपुर ठुकरा, आराध्य कहे,
तो चल रौरव के कूल-कूल।
भूखंड बिछा, आकाश ओढ़,
नयनोदक ले, मोदक प्रहार,
ब्रह्यांड हथेली पर उछाल,
अपने जीवन-धन को निहार।
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(8) दीप से दीप जले
सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान
तू मेहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।
उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।
वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।
युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।
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(9) अमर राष्ट्र
छोड़ चले, ले तेरी कुटिया, यह लुटिया-डोरी ले अपनी,
फिर वह पापड़ नहीं बेलने, फिर वह माला पड़े न जपनी।
यह जागृति तेरी तू ले-ले, मुझको मेरा दे-दे सपना,
तेरे शीतल सिंहासन से सुख कर सौ युग ज्वाला तपना।
सूली का पथ ही सीखा हूँ, सुविधा सदा बचाता आया,
मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ, जीवन-ज्वाल जलाता आया।
एक फूँक, मेरा अभिमत है, फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल,
मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी, फेंक चुका कब का गंगाजल।
इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे, इस उतार से जा न सकोगे,
तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो, जीवन-पथ अपना न सकोगे।
श्वेत केश?- भाई होने को हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी,
आया था इस घर एकाकी, जाने दो मुझको एकाकी।
अपना कृपा-दान एकत्रित कर लो, उससे जी बहला लें,
युग की होली माँग रही है, लाओ उसमें आग लगा दें।
जिस रस में कीड़े पड़ते हों, उस रस पर विष हँस-हँस डालो;
आओ गले लगो, ऐ साजन! रेतो तीर, कमान सँभालो।
हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर, तुमने पत्थर का प्रभू खोजा!
लगे माँगने जाकर रक्षा और स्वर्ण-रूप का बोझा?
मैं यह चला पत्थरों पर चढ़, मेरा दिलबर वहीं मिलेगा,
फूँक जला दें सोना-चाँदी, तभी क्रान्ति का सुमन खिलेगा।
चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस, सागर गरजे मस्ताना-सा,
प्रलय राग अपना भी उसमें,गूँथ चलें ताना-बाना-सा,
बहुत हुई यह आँख-मिचौनी, तुम्हें मुबारक यह वैतरनी,
मैं साँसों के डाँड उठाकर, पार चला, लेकर युग-तरनी।
मेरी आँखे, मातृ-भूमि से नक्षत्रों तक, खीचें रेखा,
मेरी पलक-पलक पर गिरता जग के उथल-पुथल का लेखा !
मैं पहला पत्थर मन्दिर का, अनजाना पथ जान रहा हूँ,
गूढ़ नींव में, अपने कन्धों पर मन्दिर अनुमान रहा हूँ।
मरण और सपनों में होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी,
किसकी यह मरजी-नामरजी, किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी?
अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र ! यह मेरी बोली
यह `सुधार' `समझौतों' बाली मुझको भाती नहीं ठठोली।
मैं न सहूँगा-मुकुट और सिंहासन ने वह मूछ मरोरी,
जाने दे, सिर, लेकर मुझको ले सँभाल यह लोटा-डोरी !
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(10) यह अमर निशानी किसकी है
यह अमर निशानी किसकी है?
बाहर से जी, जी से बाहर-तक, आनी-जानी किसकी है?
दिल से, आँखों से, गालों तक यह तरल कहानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
रोते-रोते भी आँखें मुँद जाएँ, सूरत दिख जाती है,
मेरे आँसू में मुसक मिलाने की नादानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
सूखी अस्थि, रक्त भी सूखा सूखे दृग के झरने
तो भी जीवन हरा ! कहो मधु भरी जवानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
रैन अँधेरी, बीहड़ पथ है, यादें थकीं अकेली,
आँखें मूँदें जाती हैं चरणों की बानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
आँखें झुकीं पसीना उतरा, सूझे और न ओर न छोर,
तो भी बढ़ूँ, खून में यह दमदार रवानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
मैंने कितनी धुन से साजे मीठे सभी इरादे
किन्तु सभी गल गए, कि आँखें पानी-पानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
जी पर, सिंहासन पर, सूली पर, जिसके संकेत चढ़ूँ
आँखों में चुभती-भाती सूरत मस्तानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
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(11) क्या आकाश उतर आया है
क्या आकाश उतर आया है दूबों के दरबार में
नीली भूमि हरि हो आई इन किरणों के ज्वार में।
क्या देखें तरुओं को, उनके फूल लाल अंगारे हैं
वन के विजन भिखारी ने वसुधा में हाथ पसारे हैं।
नक्शा उतर गया है बेलों की अलमस्त जवानी का
युद्ध ठना, मोती की लड़ियों से दूबों के पानी का।
तुम न नृत्य कर उठो मयूरी दूबों की हरियाली पर
हंस तरस खायें उस मुक्ता बोने वाले माली पर।
ऊँचाई यों फिसल पड़ी है नीचाई के प्यार में,
क्या आकाश उतर आया है दूबों के दरबार में?
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(12) समय के समर्थ अश्व
समय के समर्थ अश्व मान लो
आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।
छोड़ दो पहाड़ियाँ, उजाड़ियाँ
तुम उठो कि गाँव-गाँव ही चलो।।
रूप फूल का कि रंग पत्र का
बढ़ चले कि धूप-छाँव ही चलो।।
समय के समर्थ अश्व मान लो
आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।।
वह खगोल के निराश स्वप्न-सा
तीर आज आर-पार हो गया
आँधियों भरे अ-नाथ बोल तो
आज प्यार! क्यों उदार हो गया?
इस मनुष्य का ज़रा मज़ा चखो
किन्तु यार एक दाँव ही चलो।।
समय के समर्थ अश्व मान लो
आज बन्धु ! चार पाँव ही चलो।।
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(13) उठ महान!
उठ महान ! तूने अपना स्वर
यों क्यों बेंच दिया?
प्रज्ञा दिग्वसना, कि प्राण् का
पट क्यों खेंच दिया?
वे गाये, अनगाये स्वर सब
वे आये, बन आये वर सब
जीत-जीत कर, हार गये से
प्रलय बुद्धिबल के वे घर सब!
तुम बोले, युग बोला अहरह
गंगा थकी नहीं प्रिय बह-बह
इस घुमाव पर, उस बनाव पर
कैसे क्षण थक गये, असह-सह!
पानी बरसा
बाग ऊग आये अनमोले
रंग-रँगी पंखुड़ियों ने
अन्तर तर खोले;
पर बरसा पानी ही था
वह रक्त न निकला!
सिर दे पाता, क्या
कोई अनुरक्त न निकला?
प्रज्ञा दिग्वसना? कि प्राण का पट क्यों खेंच दिया!
उठ महान् तूने अपना स्वर यों क्यों बेंच दिया!
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(14) मुझे रोने दो
भाई, छेड़ो नहीं, मुझे खुलकर रोने दो।
यह पत्थर का हृदय आँसुओं से धोने दो।
रहो प्रेम से तुम्हीं मौज से मजनु महल में,
मुझे दुखों की इसी झोपड़ी में सोने दो।
कुछ भी मेरा हृदय न तुमसे कह पावेगा
किन्तु फटेगा, फटे बिना क्या रह पावेगा,
सिसक-सिसक सानंद आज होगी श्री-पूजा,
बहे कुटिल यह सौख्य, दु:ख क्यों बह पावेगा?
वारूँ सौ-सौ श्वास एक प्यारी उसाँस पर,
हारूँ अपने प्राण, दैव, तेरे विलास पर
चलो, सखे, तुम चलो, तुम्हारा कार्य चलाओ,
लगे दुखों की झड़ी आज अपने निराश पर!
हरि खोया है? नहीं, हृदय का धन खोया है,
और, न जाने वहीं दुरात्मा मन खोया है।
किन्तु आज तक नहीं, हाय, इस तन को खोया,
अरे बचा क्या शेष, पूर्ण जीवन खोया है!
पूजा के ये पुष्प गिरे जाते हैं नीचे,
वह आँसू का स्रोत आज किसके पद सींचे,
दिखलाती, क्षणमात्र न आती, प्यारी किस भाँति
उसे भूतल पर खीचें।
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(15) मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
प्रलय-प्रणय की मधु-सीमा में
जी का विश्व बसा दो मालिक!
रागें हैं लाचारी मेरी,
तानें बान तुम्हारी मेरी,
इन रंगीन मृतक खंडों पर,
अमृत-रस ढुलका दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
जब मेरा अलगोजा बोले,
बल का मणिधर, स्र्ख रख डोले,
खोले श्याम-कुण्डली विष को
पथ-भूलना सिखा दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
कठिन पराजय है यह मेरी
छवि न उतर पाई प्रिय तेरी
मेरी तूली को रस में भर,
तुम भूलना सिखा दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
प्रहर-प्रहर की लहर-लहर पर
तुम लालिमा जगा दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
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