ऐसी हो जीवनशैली

 


२१ मई, २०२२

शनिवार 

 

पृष्ठ १


ऐसी हो जीवनशैली


लेखक: डाॅ. राजु अधिकारी


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पृष्ठ २



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पृष्ठ ३


ऐसी हो जीवनशैली


लेखक: डाॅ. राजु अधिकारी


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पृष्ठ ४


सादर समर्पण 

युगॠषि, संस्कृतिपुरुष, ३२०० पुस्तकों के एकल स्रष्टा परमपूज्य गुरुदेव आचार्य पंडित श्रीराम शर्मा जी

देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति, अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख,  मेरे विद्यावारिधि शोधकार्य के मार्गदर्शक              डाॅ. प्रणव पंड्या जी


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पृष्ठ ५


ऐसी हो जीवनशैली



लेखक: डाॅ. राजु अधिकारी

omadhiraja@gmail.com 


प्रकाशक: मानव उत्कर्ष नेपाल, काठमांडू

मोबाइल: ९८४१३८५५८०


संस्करण: प्रथम, माघ(वसंत पंचमी), २०७३


सर्वाधिकार: लेखक में


भाषा संपादन: लक्ष्मण भंडारी


आवरण: रामकृष्ण राना 


लेआउट: यदुकुमार 


मूल्य: ३९९/-


ISBN: ९७८-९९३७-०-२०५१-०

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पृष्ठ ६

पुस्तक के भीतर 

१. जीवनशैली उत्प्रेरणा

--- जीवनशैली उत्प्रेरणा 

--- जीवनशैली विज्ञान 

--- जीवनशैली क्रांति

--- अस्त-व्यस्त जीवनशैली का परित्याग 

--- व्यस्त-मस्त-स्वस्थ जीवनशैली अपनाएँ

२. ऐसी हो जीवनचर्या 

--- ऐसी हो दिनचर्या 

--- ऐसी हो संध्याचर्या 

--- ऐसी हो रात्रिचर्या 

--- ऐसी हो मौसम अनुसार ऋतुचर्या 

--- ऐसी हो भोजनचर्या 

--- अचूक और अनमोल जीवनशैली सूत्र 

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पृष्ठ ७

ऐसी हो जीवनशैली 

--- योग-व्यायाम शैली 

--- निद्रा शैली 

--- सहवास शैली/संभोग शैली 

--- मुस्कान शैली/हास्य शैली 

--- रोदन शैली 

--- मनोरंजन शैली 

--- सफाई(स्वच्छता) शैली

--- आरोग्य शैली/स्वास्थ्य शैली

--- ध्यान शैली

--- विचार शैली 

--- स्वाध्याय शैली/अध्ययन शैली

--- कार्य शैली 

--- सेवा शैली

--- भ्रमण शैली/यात्रा शैली 

--- मोबाइल शैली/कंप्यूटर शैली

--- मृत्यु शैली 

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पृष्ठ ८

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पृष्ठ ९

जीवनशैली उत्प्रेरणा

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पृष्ठ १०

जीवनशैली उत्प्रेरणा

जीवन से जीवन की खुशबू सिर्फ उस समय निकलने लगती है, जब इसकी लय और शैली सुव्यवस्थित होती है। जीवन दुख के लिए कतई नहीं, यह तो सुख और आनंद के लिए है। इसीलिए तो जीवनवेत्ता ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जीवन को सत्  चित् और आनंद की त्रिवेणी माना है। जीवन का दूसरा अर्थ आनंद है। जीवन भर जो कुछ भी किया जाता है, जुटाया या रचा जाता है, सब कुछ आनंद प्राप्ति के लिए ही है। इसी सुख-आनंद को प्राप्त करने के उद्देश्य से ज़िन्दगी को प्रकृति, स्वास्थ्य और सौंदर्य से जोड़ने की विधि-व्यवस्था को ही जीवनशैली कहा जाता है।

लय और शैली प्राप्त करने के बाद मात्र मानव जीवन जीने का अर्थ ढूँढ़ने लगता है। जीवनशैली अव्यवस्थित हो तो ज़िंदगी में कोई प्राण नहीं होता। प्राण न होने पर कोई भी वस्तु मृततुल्य तो होती ही है। अपने कंधे पर अपना ही मृत शव लेकर चलने में कौन-सा मजा आएगा? वास्तविक आनंद तो वहाँ है, जहाँ जिंदगी प्रतिक्षण जीवंत होती है। ज़िंदगी तबतक ही जीवित मानी जाती है, जबतक इसमें लय और गत्यात्मकता होती है। इसीका नाम जीवनशैली है। लयबद्ध जीवनशैली में जीवन का अर्थ अभिव्यक्त होता है। जब हमारा जीवन अर्थ धारण करता है, सिर्फ तभी जीवन जीने के आनंद की अनुभूति होती है। 

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पृष्ठ ११

अन्यथा जीवन उस फ्रांसिसी लोकोक्ति की तरह बन जाएगा, जिसमें कहा गया है--"जो व्यक्ति घिसट-घिसटकर ज़िंदगी  जीता है, वह नित्य निरंतर ही मृततुल्य होता है।" इसके ठीक विपरीत फिर जीवन जीने का अर्थ कुछ अलग ही है। काका कालेलकर के शब्द उधार लेते हुए कहें तो "जीवन न तो सुखमय होता है और न भारस्वरूप, यह तो एक प्रकार की साधना है।"

सुखालय या दुखालय?

सही समय की सूचना देने के लिए एक घड़ी के भीतर तीन काँटे होते हैं। तीव्र गति में चलने वाला सेकंड का काँटा, मध्यम गति में चलने वाला मिनट का काँटा और एक घंटे की सूचना देने के लिए सबसे धीमी रफ्तार में चलने वाला तीसरा काँटा। तीनों काँटों के अपनी-अपनी लय, गति और तरीकों से चलते रहने तक एक घड़ी कभी खराब नहीं होती। परंतु उन तीन काँटों में से किसी एक काँटे की लय, गति और क्रमबद्धता भंग होने लगती है तो वह घड़ी खराब समझी जाती है और उसके दिखाए गए समय को गलत माना जाने लगता है।

इंसान का जीवन भी ठीक इसी प्रकृति का होता है। मानवीय जीवन की कुछ गतिविधियों को स्वाभाविक गति चाहिए, कुछ गतिविधियाँ द्रुत गति से आगे बढ़ानी पड़ती हैं और जीवन के कई कार्य घंटे के काँटे की तरह एक स्वाभाविक गति से ही आगे बढ़ते हैं। जीवन के विभिन्न आयाम, क्रियाकलाप और गतिविधियों को अपने नैसर्गिक क्रम-उपक्रम अनुसार चलाने की पद्धति ही संतुलित जीवन है और इस संतुलित जीवन का दूसरा नाम ही जीवनशैली है।

जिंदगी तनाव और दुख के लिए नहीं है, सुख और प्रसन्नता के लिए है। सृष्टि और प्रकृति में जो कुछ भी विद्यमान हैं वे सभी मानव के सुख और शांति के निमित्त ही हैं। सभी वैज्ञानिक खोज और आविष्कार, सारे ग्रंथ, नवनिर्माण इंसान के सुख और समृद्धि के लिए ही हैं। इंसान अपने जीवन में जो मेहनत, पुरुषार्थ, प्रयत्न और संघर्ष करता है, उन सभी का अंतिम उद्देश्य सुख और शांति ही है। इन अंतर्वृत्तियों को ही मानव मर्मज्ञ सत्-चित्-आनंद कहते हैं। 

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सत् अर्थात जीवन अथवा प्रकृति का अस्तित्व, चित् अर्थात मानवीय चेतना और आनंद अर्थात स्वतः प्रस्फुटित अक्षय खुशी अथवा निरपेक्ष और मौलिक प्रसन्नता। जीवन का परम लक्ष्य सत्-चित्-आनंद है और ये उसी समय प्राप्त हो सकता है जब हमारा जीवन सुव्यवस्थित और लयबद्ध रूप में चलने लगता है। अन्य शब्दों में कहें तो जब हमारी जीवनशैली एवं दिनचर्या व्यवस्थित होती है और हम आदर्श आचार-विचार अपनाने लगते हैं, तभी हमारा जीवन भी रोशन होने लगता है।

गंभीरता के साथ अवलोकन करें तो प्रकृति और इसके नीति-नियम, इसकी कार्यशैली हमेशा से सुव्यवस्थित हैं। सूर्य और चंद्र की लयबद्धता को देखें तो ये हमेशा समय पर ही उदय और अस्त होते हैं। पेड़, पौधे, लता-वनस्पतियों के अंकुरित होने, पुष्पित-पल्लवित होने का अपना ही निश्चित  निर्धारित समय होता है। अपवाद के अलावा समय से पहले किसी भी वृक्ष में फल-फूल उगते अथवा खिलते हुए सामान्यत: देखा नहीं जाता।

पशु-पक्षियों की अगर कहें तो पालतू पशुओं के अलावा अन्य किसी भी पशु-पक्षी को आधुनिक रोग-विकारों से ग्रस्त नहीं देखा जाता। आज तक किसी भी स्वतंत्र पशु-पक्षी को अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कब्जियत, अम्लपित्त, हृदयाघात जैसी आधुनिक बीमारियों से ग्रस्त होकर मरते हुए देखा नहीं गया है।

पशु-पक्षियों का भोजन, शयन, जागरण, उपवास, व्यायाम तथा विचरण अत्यंत निर्धारित और स्वास्थ्यपरक होता है। आधुनिक मानव की तरह अस्त-व्यस्त और असामंजस्यपूर्ण नहीं होता।

वास्तव में समस्त प्रकृति और रचनाओं की सुंदरता ही इनकी व्यवस्थित जीवनशैली है। जहाँ जीवनचर्या लयबद्ध होती है, वहाँ शाश्वत सौंदर्य प्रस्फुटित होता है। जो दैनिक जीवन को समायोजनपूर्ण और लयबद्ध बनाते हैं, उनके जीवन में हमेशा चिरयौवन अभिव्यक्त होता है। इसीमें जीवन की मधुरता, सुंदरता समाई हुई है, आरोग्य समाया हुआ है। जीवन आनंद के साथ उँचाई की ओर आरोहण करता है। 

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क्यों दें विकृति को स्वीकृति?

आधुनिक चिकित्सकों का कहना है कि आजकल जितनी भी नई रोग-व्याधियों का जन्म हो रहा है, वह मूलतः जीवनशैली में आई विकृतियों की वजह से ही है। जीवन जीने के तौर-तरीकों में अस्त व्यस्तता, खाने-पीने, उठने-बैठने, सोने-जागने, काम करने, आराम करने अथवा व्यायाम आदि करने की दिनचर्या में आए व्यापक उलटफेरों को विकृत जीवनशैली माना जाता है। इस तरह सुर-ताल विहीन जीवन जीने का क्रम बढ़ते ही हमारा जीवन भी विद्रोह करने लग जाता है। जब जीवन स्वयं विद्रोह करने लगे, तब उसके दुष्परिणाम भी प्रकट होने लगते हैं। इसे जीवन शैली में आई विकृति अथवा लाइफ़स्टाइल डिसऑर्डर कहा जाता है।

आज आधुनिक चिकित्सकों की सबसे ज्यादा चिंता इन्हीं विकृतियों को लेकर है। ऐसे विकृतिजन्य रोग एक बार लगने के बाद कभी पूर्ण रूप से ठीक नहीं होते। ये बार-बार हमारा ध्यान खींचते रहते हैं। ऐसे रोग हमारी सामान्य अस्त-व्यस्तता एवं जीवनशैली में आए सामान्य असंतुलन से ही अचानक बढ़ जाते हैं। वर्तमान समय तक डॉक्टर इन बीमारियों के नियंत्रण में तो सफल हुए हैं, परंतु उनका पूर्ण उपचार संभव नहीं हो पाया है।

उच्च कोलेस्ट्रॉल, उच्च रक्तचाप, अनावश्यक मोटापा, हृदयजन्य विकार, जोड़ों का दर्द जैसे अनेकों सर्वत्र देखे जा रहे रोग हमारी जीवनशैली में आई विकृतियों के कारण ही उत्पन्न होते हैं। आज के प्रत्येक व्यक्ति की प्राथमिकता अपना स्वास्थ्य एवं फिटनेस है, जिसका प्रमुख आधार जीवनशैली है। मनुष्य की दूसरी प्राथमिकता है समृद्धि, उन्नति अथवा विकास-- जिसको हासिल करने की अपरिहार्य योग्यता है व्यक्ति की उद्यमशील जीवनशैली। समृद्धि और उन्नति के बाद मनुष्य की तीसरी चाह है-- सुख और शांति और इन्हें प्राप्त करने का एकमात्र और अंतिम उपाय ही है क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित जीवन शैली। यदि सुख-शांति को जीवन का मधुर संगीत मानें तो ऐसा मधुर संगीत निश्चित होने वाला वाद्य यंत्र है जीवन की लयबद्धता और सुव्यवस्था।

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यदि किसी वाद्ययंत्र के तार बहुत ढीले हों अथवा बहुत ही कसे हुए हों तो उससे सुमधुर लय और ध्वनि नहीं निकलती। जीवन जीने की कला के लिए भी यही बात लागू होती है। जीवन जीने के क्रम में आचार-विचार तथा आहार-विहार का संतुलन न हो तो अपार धन-दौलत और सुख-साधन का स्वामी होकर भी जीवन में कदापि सुख-शांति रूपी लय को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

मनुष्य जीवन वास्तव में बहुत छोटा है, परंतु जीवन में करने लायक कार्य बहुत हैं। हमारा जीवन कैसा भी क्यों न हो हमें इसे जीना और भोगना तो है ही। दुनिया की कई चीजों को शायद हम अदल-बदल  सकते भी हों, परंतु जिंदगी के मूल अस्तित्व का विनिमय हम कदाचित नहीं कर सकते। जिंदगी के भौतिक तथा स्थूल आकार को बदला तो नहीं जा सकता, परंतु हम अपने जीवन जीने के तरीकों को तो बदल ही सकते हैं। भौतिक शरीर के आकार और रंग-रूप को बदलना भले असंभव हो, परंतु शारीरिक रोग-विकारों को आरोग्य और तंदुरुस्ती में अवश्य बदल सकते हैं। शारीरिक ऊँचाई को बढ़ाना भले कठिन हो, परंतु व्यक्तित्व की ऊँचाई को अवश्य ही बढ़ाया जा सकता है। 

चेहरे के रंग-रूप को बदलना कठिन हो सकता है, परंतु अपनी जीवनशैली को सुधार कर चेहरे के रंग-रूप में चमक और ओजस्विता की मात्रा अवश्य बढ़ाई जा सकती है। समुचित जीवनशैली ही  उपर्युक्त सभी बदलाव लाने का एकमात्र उपाय है। कुछ आरोग्य वेत्ता तो यहाँ तक कहते हैं कि कलात्मक और लयबद्ध जीवनशैली के साथ जीवन जी कर तो देखो, यह मुरझा चुकी जवानी में भी पुनः चिरयौवन और शाश्वत सौंदर्य लौटा देगी। 

पशु और राक्षसों-सी जिंदगी भी क्या जिंदगी?

सारे संसार की और संसार में रहने वाले जन-जन एवं घर-घर की भलाई चाहने वालों को ऋषि मुनि कहा जाता है। मानव जीवन के महान अध्येता ऋषि-मुनि कहते हैं कि मानव होकर ऐसा जीवन जियो कि तुम्हारे जीवन आदर्शों को देखकर देवतागण भी ललचाएँ। पशु

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और राक्षसों-सी जिंदगी भी क्या जिंदगी? मनुष्य को परमात्मा के राजकुमार की उपमा दी गई है। इसलिए उसकी जिंदगी भी परमात्मा के राजकुमार की तरह तो हो! शायद इसीलिए सत्य साईं बाबा ने कहा है-- "जीवन परमात्मा तक की तीर्थ यात्रा है।" तीर्थ यात्रा हमेशा ही पवित्र भावना से की जाती है। तीर्थ यात्रा में थकान नहीं होती। प्रसन्नतापूर्वक दुख-कष्ट सहने की तत्परता होती है। ताकि बिना अवरोध देवदर्शन हो सके। ऐसी हो नित्य जीवन शैली भी। जीवन जीने एवं सुनियोजित करने की कलाशैली की खोज आधुनिक अन्वेषक तक भी गंभीरता के साथ कर रहे हैं।

सुनियोजित जीवनशैली पर गहन अन्वेषण करते हुए अमेरिका की प्रख्यात मनोवैज्ञानिक फ्राएडा पोरेट ने 'क्रिएटिव प्रोक्रेस्टिनेशन' नामक कृति प्रकाशित की है। जीवनशैली सुनियोजन के सूत्रों की चर्चा करने से पहले उन्होंने अस्त-व्यस्त आधुनिक मानव की वास्तविकताओं का चित्रण किया है। उद्योग-व्यापार, कल-कारखाने,  घर-गृहस्थी, नौकरी आदि के चक्कर में आज का मनुष्य इस तरह घिर चुका है, जिनके कारण वह खाली समय का उपयोग प्रकृति सेवन एवं व्यक्तिगत योग्यताओं तक पर ध्यान नहीं दे पाता। पोरेट ने इनके निराकरण के लिए कुछ व्यावहारिक जीवनसूत्रों को अपनाने की सलाह दी है।

उनकी सलाहों का पहला सूत्र है--अपने शरीर की सुरक्षा। दूसरे सूत्र में वह अपनी बुद्धि एवं भावनाओं का सदुपयोग करने की सलाह देती हैं। उनके अनुसार हर पल का सही उपयोग कर हमें कुछ समय नितांत अपने लिए बचाने की भी आदत डालनी होगी। बहिर्मुखी प्रवृत्ति घातक सिद्ध हो सकती है। इसीलिए अंतर्मुखी प्रवृत्ति अपनाना एवं सीखना भी आवश्यक है। थकान का अनुभव होते ही विश्राम करना भी अति आवश्यक है। उनका सुझाव यह भी है कि आपके लिए किसी के द्वारा समय नहीं दिए जाने पर उन्हें कोसने और दोष देने के बदले स्वयं अपने लिए समय निर्धारण कर हमें आनंद प्राप्त करना चाहिए। समय के अनुशासन में हम सभी को बँधना तो है ही परंतु समय को ही अपने जीवन का मालिक व संचालक बनने की छूट भी हमें नहीं देना है।

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आप अपनी प्रतिभा और दक्षता में जितना निखार लाते जाएँगे,  जिंदगी उतनी ही आसान होती जाएगी। ज्यादा-से-ज्यादा पैदल चलें। व्यायाम करें। पर्याप्त आराम करें। संतुलित भोजन की आदत डालें।  समय की महत्ता एवं गरिमा का सतत सम्मान करते हुए अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन योजना बनाकर कार्य करें। अपनी जिम्मेदारियों का निश्चित निर्वाह करें। जीवन को प्रतिस्पर्धात्मक नहीं रचनात्मक बनाएँ। फिर देखिए, जिंदगी किस तरह बदल जाती है। पाश्चात्य जगत का प्रतिनिधित्व करने वाली इस अध्येता की सलाह का मनन करें एवं हमारी प्राचीन संस्कृति इस विषय पर क्या कहती है, उसे भी देखें--

तस्मादात्मवता नित्यमाहाराचारभेषजम्

धीमता तदनुष्ठेयं स्वास्थ्यं येनानुवर्तते।।

                                         -- वृंद:

आयुर्वेद तथा शास्त्रोचित स्वस्थ जीवनचर्या के नियमों को ध्यान में रखकर स्वयं का हित चाहने वाले व्यक्तियों को हमेशा नियमवद्ध आहार-विहार, आचरण एवं समुचित औषधि सेवन का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने पर स्वास्थ्य स्थिर रहता है एवं स्वास्थ्य की उत्तरोत्तर श्रीवृद्धि होती है।

दिनचर्या निशाचर्यामृतुचर्यां यथोदिताम्।

आचरन पुरुषः स्वस्थः सदा तिष्ठति नान्यथा।।

                                           -- आप्तवचन

अपने लिए हित-अहित का विचार करते हुए भी उपयुक्त रीति से दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या का यथोचित पालन करने वाला व्यक्ति सदा स्वस्थ मात्र नहीं रहता, समूचे संसार से पूर्ण सम्मान भी प्राप्त करता है। ऐसा व्यक्ति सर्वदा निरामयपूर्ण, स्वस्थ एवं पूर्णतः सुखी जीवन व्यतीत करता है।

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जीवनशैली विज्ञान

आज की कृत्रिम और आक्रामक जीवनशैली के कारण आज का मानव त्रस्त है। भले ही बाहर से उसका मुस्कान भरा चेहरा दिखाई देता हो, परंतु भीतर ही भीतर वह शोकमग्न जीवन जीने को मजबूर है। हमने अपने जीवन की प्रकृति का ख्याल रखा होता तो प्रकृति भी हमारे जीवन का ख्याल रखती। जो व्यक्ति स्वयं को प्रकृति का एक अभिन्न घटक मानकर तदनुरूप जीवन व्यतीत करता है, प्रकृति भी उसे अपना अंग समझकर स्नेहपूर्ण व्यवहार करती है। इसे 'डीप इकोलॉजी' अर्थात 'गहन पर्यावरण चक्र' कहा जाता है।

विकृत जीवन शैली से बिगड़ती है समस्त प्रकृति

साफ-स्वच्छ शिशु अथवा बालक को देखते ही कोई भी उसे प्यार से पूचकारने लगता है। उसे गोद में लेना अथवा हृदय से लगाना चाहता है। उसके साथ हँसना-खेलना पसंद करता है। गंदे-मैले तथा घिनौने बच्चे के पास जाने में तो स्वयं उसकी माँ भी हिचकिचाती है। अस्त-व्यस्त, कृत्रिम और घिनौना जीवन जीने वाले व्यक्ति स्वयं की आत्मा तक उसे धिक्कारती है। प्रकृति को तो ऐसी विकृति बिल्कुल भी पसंद नहीं। परंतु क्या करें आज के मनुष्य का व्यवहार और उनकी दिनचर्या दिन-ब-दिन प्रकृति विपरीत होती जा रही है।

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पृष्ठ १८

क्या हम इसे 'जैविकी दरिद्रीकरण' नहीं कह सकते? विख्यात व्यवहारशास्त्री एफ. ए. बिबमान अपनी कृति 'बिहेवियरल एग्रेसन एंड एनवायरनमेंट'(Behavioural aggression and Environment)  में कहते हैं, "वर्तमान सदी में पर्यावरण बुरी तरह से ध्वस्त हो रहा है, साथ-ही-साथ मानव का व्यवहार और उसकी जीवनशैली भी आक्रामक होती जा रही है। पहले के दिनों में समाज के दो-चार लोग ही ऐसे होते थे, बाकी सामान्य जन पारस्परिक सहयोगपूर्ण सरल और सौम्य जिंदगी जीते थे। लेकिन आज तो माहौल ऐसा हो गया है कि यहाँ सभ्य समाज के हर वर्ग के लोगों का व्यवहार निरंतर अमानवीयता की ओर उन्मुख है।"

जीवन स्वभावतः सरल, सौम्य, लयबद्ध, प्रकृतिनिष्ठ एवं मृदुल होना चाहिए। ऐसा जीवन जीने वालों के प्रति प्रकृति भी बहुत खुश और सहयोगी होती है एवं दिल खोलकर इन पर कृपा करती है। माँ के गर्भ में स्थित शिशु का नाता उसकी नाभिनाल और जन्मदात्री माँ  के साथ जुड़ा होता है। गर्भ में स्थित रहने तक उसी नाभिनाल के माध्यम से गर्भस्थ शिशु आवश्यक मात्रा में पोषण लिया करता है। वह मातृ शरीर का ही पोषणांश है। ठीक इसी अनुरूप प्रकृति मातृ भी धरती के प्रत्येक प्राणी को अपना पोषण और अविरल अविच्छिन्न रूप में प्रदान कर रही होती है। प्राणवायु, पृथ्वी की चुंबकीय शक्ति, आहार तत्व, वैचारिक पोषण, आवश्यक गुरुत्वशक्ति, पंचतत्व जैसे पोषणांश हम प्रकृति माता के गर्भगृह से हम आजीवन ले रहे होते हैं। जीवनदायिनी इन शक्तियों के आदान-प्रदान की शृंखला में उस समय व्यवधान आता है, जिस समय हमारी जीवनचर्या और हमारे व्यवहार होने लगते हैं।

प्रकृतिविदों का कहना है कि व्यक्ति में बीमारियाँ तब तक जन्म नहीं लेतीं जब तक व्यक्ति प्राकृतिक परिवेश अनुरूप अपनी जीवनशैली का समायोजन करते हुए जीता है। इसके विपरीत प्रकृति के नियमों की अवहेलना और उल्लंघन ही रोग है। शारीरिक रोग विकार मात्र नहीं, हमारे वैचारिक सुख-दुख  और आत्मा की चैन-शांति का स्तर भी प्रकृति एवं मानव मध्य के सहसंबंध द्वारा प्रभावित होता है।

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पृष्ठ १९

व्यवहारशास्त्र विशेषज्ञ जे. स्टेन के कथन अनुसार "जिन स्थानों का वातावरण अस्त-व्यस्त होता है, उन स्थानों के निवासी अथवा मानव समुदाय की मानसिक अवस्था भी उसी अनुपात में अस्त-व्यस्त और व्याकुल हुआ करता है। उनके व्यवहार में बेचैनी, गुस्सा, शीघ्र प्रतिक्रिया, आक्रामकता एवं चिंताग्रस्तता दिखे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

अर्थहीन होने से पहले जीवन का अर्थ खोजें 

जब स्वास्थ्य खो देते हैं, तब जाकर हम स्वास्थ्य का महत्व बोध करते हैं। जब धन-दौलत की चोरी होती है, तब हमें इसकी सुरक्षा का महत्व का पता चलता है। हृदयाघात के कारण अस्पताल के इमरजेंसी कक्ष में पहुँचने एवं उपचार पाने के बाद हमें धूम्रपान, मद्यपान एवं अखाद्य सेवन के दुष्प्रभाव का पश्चाताप बोध होता है। अनिद्राजनित छटपटाहट से पल-पल तड़पने के बाद हमें प्रगाढ़ निद्रा की अपरिहार्यता महसूस होती है। दिन-रात औषधि एवं इंजेक्शन के  जाल में उलझ कर जीवन का आनंद खो चुके व्यक्ति को ही इनके झंझटों का पता चलता है। कुविचार एवं कुअभ्यास जनित बेचैनी और व्याकुलता से छुटकारा पाने के उपाय ना ढूँढ़ पाने के पश्चात मात्र हमें आचार-विचार की गरिमा का बोध होता है। जिंदगी की विदाई के क्षण महसूस होने के बाद मात्र व्यक्ति को इस के यथार्थ मूल्य का बोध होता है और अपने मूल्यवान जीवन को मुफ्त में गँवाने का घोर पश्चाताप होता है।

वही व्यक्ति वास्तव में भाग्यवान है, जिसके ज्ञानचक्षु स्थिति के बिगड़ने से पहले ही खुल चुके होते हैं अथवा जिसने अपने अंतर्मन को अभी विकृत होने नहीं दिया है। जब अंतर्मन विकार ग्रस्त होता है और व्यक्ति को इसका होश नहीं होता, तब ऐसी विकारग्रस्तता हमारे शरीर पर भी हावी होने लगता है। तब तन और मन की विकृति के कारण जीवन के कुरूप होने में देर नहीं लगती। तन-मन-जीवन सभी में विचलन आ जाने के बाद तो कोई भी आपके जीवन को बचा नहीं सकता। आपके नितांत आत्मीय जन भी आपको आप की दयनीय हालत में छोड़ने के अलावा कुछ नहीं कर सकते।

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अभी सिर्फ शारीरिक बीमारियाँ शुरू हुई हों तो शायद डॉक्टर या वैद्य आपकी मदद कर सकते हैं और आपको बचा भी सकते हैं। परंतु यह विचित्र रहस्य स्मरण रहे, आपके मन में विकार न आने तक शारीरिक अस्वस्थता हो ही नहीं सकती, यह ध्रुव सत्य है। शारीरिक स्वास्थ्य का उपचार ढूँढ़ते हुए हम बार-बार भटक रहे होते हैं। सही गलत रास्ते और तरीके अपनाते हैं। रोग-व्याधि के निदान के लिए डॉक्टर, वैद्यों के दरवाजे खटखटाने लगते हैं। परंतु सिर्फ शारीरिक बीमारियों का उपचार करने वाले चिकित्सक को क्या पता कि आप किन मानसिक स्थितियों से गुजर रहे हैं? शरीर विज्ञान मात्र का अल्पज्ञानी डॉक्टर और बेचारे हम -- दोनों उपचार के मूल को छोड़कर सतही, बाहरी एवं तत्काल चिकित्सा ढूँढ़ने में व्यस्त हैं। हमारा सामाजिक चलन ही ऐसा है। डॉक्टरी शारीरिक परीक्षण करता है, रक्त परीक्षण करता है, शरीर की चीर-फाड़ करता है अथवा शारीरिक अस्वस्थता के लक्षणों का दमन करने के लिए पथ्यापथ्य निर्देश करता है। क्षणिक अथवा सामयिक निदान पाकर हम भी प्रसन्न हो जाते हैं। परंतु उनका दमन मात्र होता है। बीमारियाँ निर्मूल नहीं होतीं। क्योंकि मन के विकार ज्यों के त्यों रह जो जाते हैं। परिणामस्वरूप हमारा जीवन मानसिक एवं शारीरिक रोग -- दोनों के भार और मार से दिन-प्रतिदिन रोगमय, भोगमय एवं शोकमय बनकर रह जाता है।

सोच मात्र में सीमित न रहें

आम मनुष्य की दशा और सोच तो आम है ही, कई सारे विद्वान, वैज्ञानिक, विशेषज्ञ एवं डॉक्टर स्वयं तक की हालत भी बेहतर नहीं है। कुछ सर्वेक्षणों ने दिखाया है कि आजकल रोगों का उपचार करने वाले डॉक्टर की जिंदगी ही सर्वाधिक अस्त-व्यस्त एवं आकुल-व्याकुल है। हम सभी यह देख ही रहे हैं कि विद्वान, वैज्ञानिक, प्राध्यापक, विशेषज्ञ, धर्मगुरु, प्रशासक, पत्रकार, राजनेता और समाज के सचेतक वर्ग आजकल कितना बेचैन जीवन जीते हैं। समाज के अग्रपंक्ति का वर्ग ही इतना अधिक भ्रमित और बेचैन हो तो आम मनुष्य किस से सीखे? किस का अनुकरण करे? प्रश्न अपने आप में अनुत्तरित है।

ऐसी समस्याएँ, विकृतियाँ और दुरवस्था की गिनतियों का कोई अंत नहीं। समस्याएँ और जटिलता असंख्य और अंतहीन हैं। यह दुःखद बात है। परंतु साथ-ही-साथ सुखद विषय यह भी है कि हमारे पास 'जीवनशैली सुधार' अर्थात 'लाइफस्टाइल करेक्शन' का विकल्प भी है । यही विकल्प संपूर्ण विद्यमान समस्याओं का एकमात्र समाधान

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है। इसके भी पुनः दो पहलू दृष्टिगोचर होते हैं। दु:खद स्थिति यह है कि हमारे पास समय अत्यंत कम है। वहीं सुखद बात यह है कि हमारे पास अभी भी कुछ समय बाकी है। इन क्षणों का सदुपयोग कर हम अपने आगामी जीवन को किसी हद तक सँवार सकते हैं और आने वाली पीढ़ी के लिए अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत तो कर ही सकते हैं।

आदरणीय पाठक महोदय, कृपया कुछ पल अपने सभी तर्क-वितर्क, पूर्व मान्यताएँ, धारणाओं का त्याग कर गंभीरतापूर्वक हमारी दयनीय वर्तमान स्थिति पर मनन करें। आपको निश्चय ही यह प्रतीत होगा कि यह समय सुनने या समझने मात्र का नहीं है, जीवनशैली को बिल्कुल बदलकर रखने और दैनंदिन व्यवहार में इन्हें दृढ़ता के साथ उतारने का है। प्रसिद्ध चिकित्सक डॉक्टर भगवान कोइराला अपने उच्चपदस्थ मैनेजरों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कहा करते हैं-- "अब सिर्फ सुनने के दिन गए, अब तो कार्य करने के दिन आए।" उनका  सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपनी ही जिंदगी के बारे में, अपने  स्वास्थ्य के संबंध में गंभीरता से विचार नहीं करेंगे तो हम अपने तन-मन-जीवन को बीमार होने से कदापि रोक नहीं सकेंगे।

विकृत न हो जिंदगी, कुरूप न हो चेहरा (विकृत न हो जीवन, कुरूप न हो वदन)

"बीस वर्ष की आयु तक व्यक्ति का चेहरा (वदन) जैसा दृष्टिगोचर होता है, वह प्रकृति का दिन है। तीस वर्ष की आयु वाला चेहरा जिंदगी के उतार-चढ़ाव का देन है। जबकि पचास वर्षीय परिपक्व  चेहरा व्यक्ति की अपनी कमाई है।" महर्षि अष्टावक्र के इस कथन के अंतर्गत व्यक्ति की जीवनशैली उसके चेहरे के ढाँचे को किस तरह निर्धारित अथवा नियंत्रित करती है इस तथ्य का पता चलता है।  जीवन जीने का तरीका सुंदर हो तो आपका चेहरा भी सुंदर ही होगा। इसके विपरीत बेढंग, बेतरतीब जीवनशैली हमारा क्या नहीं बिगाड़ती? चेहरे में कुरूपता लाने में भी इसका बड़ा योगदान होता है।

जीवन जीने की कला की अज्ञानता के कारण जिंदगी बर्बाद होने का दर्द अत्यंत पीड़ादायी होता है। जिंदगी का बिगड़ना और साथ ही साथ चेहरे का भी कुरूप होना कितना पीड़ादायी होता है, हम यह सोच भी नहीं सकते। 'ऐसी हो जीवनशैली' शीर्षक यह किताब विकारग्रस्त जिंदगी में और कुरूपता की ओर यात्रा कर रहे हमारे चेहरों में सुंदरता वापस लाने का छोटा-सा प्रयास है। प्रस्तुत पुस्तक का मूल आधार पूर्णतः वैज्ञानिक तो है ही, ऋषि कल्प पर आधारित स्वस्थ जीवनशैली भी है। प्राचीन ग्रंथ, ऋषिप्रणित रचनाएँ, आप्त  _______________________________________________

पृष्ठ २३/ पृष्ठ 14

वचन, स्मृतिग्रंथ, जीवनशास्त्र, आर्ष वाङ्मय आदि इस पुस्तक के आधार स्रोत बनाये गए हैं। साथ ही साथ इन्हें आधुनिक विज्ञान की कसौटियों पर कसने अथवा निखार कर प्रस्तुत करने का प्रयास भी किया गया है।

जीवन विज्ञान के महान अध्येता-अन्वेषकों ने कहा है -- 'सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा' अर्थात हमारी संस्कृति विश्व की प्रथम संस्कृति होने के नाते यह पूरे विश्व के द्वारा अपनाने योग्य है। इस पुस्तक के माध्यम से हम इसी सत्कथन की पृष्ठभूमि में रहकर मानव जीवनशैली विज्ञान के विविध विधि-उपायों की व्याख्या करेंगे। यह पुस्तक जिज्ञासु पाठक वर्ग को नई दृष्टि प्रदान करे, यही इस पुस्तक के लेखक का ध्येय है। जीवन जहाँ लयबद्ध एवं विवेकबद्ध हो, वहाँ अनिष्ट एवं अनिश्चय सहज ही पराजित होता है। विद्वान ज्याँ डेला फोंटेन का कथन है-- "विवेकवान व्यक्ति को कभी अकालमृत्यु भोगना नहीं पड़ता।"

ग्लोबल वार्मिंग और जीवनशैली

जलवायु में परिवर्तन और साल-दर-साल बढ़ती उष्णता आज सभी के लिए चिंता का विषय है। वातावरण, धरती, वनस्पति, वायु, जल एवं समस्त जीवजगत पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रत्यक्ष असर हो रहा है। विश्वभर के पर्यावरणविद और वातावरण वैज्ञानिक इसकी रोकथाम के लिए दिन-रात व्यस्त हैं। इस तरह अंधाधुंध गति से नियंत्रण से बाहर हो रहे जलवायु परिवर्तन का कारण आखिर क्या है, इस विषय में समय-समय पर विज्ञ एवं विशेषज्ञों के अलग-अलग विज्ञप्ति आते रहते हैं। सन 1997 में जापान के क्योटो शहर में विश्व के 153 देशों के सरकार और राष्ट्रप्रमुखों ने मिलकर ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। इसी स्थान से क्योटो प्रोटोकोल जारी करते हुए उन्होंने विश्व समुदाय को इसकी पालना करने की अपील भी की थी। उक्त प्रोटोकॉल को 2005 के 16 फरवरी से पूरे विश्वभर लागू भी किया गया।

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पृष्ठ 15

विश्व भर अनियमित और अनियंत्रित ढंग से बढ़ रहे तापक्रम का प्रमुख कारण ही आज के मानव की जीवनशैली है। सबको मनन करना चाहिए कि हमारी अस्त-व्यस्त जीवनशैली, अस्वस्थ आचार-व्यवहार और असंतुलित आहार-विहार ही जलवायु प्रदूषण की प्रमुख वजह हैं। इस पर भी शहरी जीवनशैली ने तो धरती की सुंदरता को ध्वस्त करके रख दिया है। प्रकृति तथा जलवायु का सत्यानाश करने वाले कारणों में एवं वैश्विक जलवायु के उथल-पुथल होने में मांसाहारी जीवनशैली 25 प्रतिशत जिम्मेदार है।

प्रसिद्ध ज्ञानपुरुष राजीव दीक्षित ने क्योटो प्रोटोकोल सहित विश्व के अनेकों जलवायु परिवर्तन संबंधी खोज-अनुसंधान एवं तथ्य-तथ्यांकों का व्यापक विश्लेषण किया था। उन विश्लेषणों के आधार पर प्राप्त सत्य तथ्यों को उन्होंने स्पष्ट रूप से सबके सामने रखा। उनके द्वारा हासिल और प्रमाणित किए गए तथ्य-तथ्यांकों के अनुसार ही उपर्युक्त 25 प्रतिशत का आँकड़ा सबके सामने प्रकाश में आया है। 

ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या से बचने की विधि एवं उपायों के बारे में अब सर्वत्र चर्चाएँ हो रही हैं। इस समस्या को रोकने के प्रयास भी हो रहे हैं। इसी क्रम में बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के निमित्त जीवन शैली में ही अनिवार्य रूप में परिवर्तन लाने के बारे में बल देते हुए शीर्षस्थ अमेरिकी वैज्ञानिक थॉमस लवजोद बताते हैं-- "समस्त पृथ्वी को आज बुखार आया है। इसे असाध्य रोग लगा हुआ है। हम सभी को अब स्वयं के साथ और अपनी जीवनशैली के साथ लड़ने एवं संघर्ष करने की बेला आई है।"










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