कबीर की साखियाँ और सबद/व्याख्या

 


कबीर की साखियाँ और सबद

साखियाँ:

मानसरोवर   सुभर   जल,   हंसा   केलि   कराहिं।
मुकताफल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं ।1।

व्याख्या: मानसरोवर झील स्वच्छ जल से लबालब भरी हुई है। उसमें हंस क्रीड़ा करते हुए मोतियों को चुग रहे हैं। वह ऐसे आनंददायक स्थान को छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहते। इन पंक्तियों से कवि  का भावार्थ यह है कि साधक का मनरूपी सरोवर प्रभु की भक्ति के आनंद रूपी जल से भरा हुआ है। उसमें हमारी जीवात्मारूपी हंस विहार कर रहे हैं। वह आनंद की मोतियों को चुगते हैं और इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाते अर्थात जीवात्मा रूपी हंस प्रभु भक्ति में लीन होकर मन में परम आनंद का सुख भोग रहे हैं। वे इस सुख को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना चाहते हैं। 

प्रेमी ढूंढ़त मैं  फिरौं, प्रेमी  मिले न कोइ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।2।

व्याख्या: कबीरदास जी प्रेम के महत्व को समझाते हुए कहते हैं अक्सर लोग प्रेमी जन को ढूंढ़ते हुए फिरते हैं, किंतु उन्हें प्रेम नसीब नहीं होता अथवा सच्चा प्रेमी व्यक्ति नहीं मिलता। परंतु सच्चे भाव से अगर कोई प्रेमी को ढूँढ़ते हुए फिरे तो वह आसानी से मिल सकता है। कबीर के अनुसार जब दो सच्चे प्रेमी अथवा प्रभुभक्त आपस में मिलते हैं तो उनके बीच कोई भेदभाव, ऊँच-नीच इत्यादि विषतुल्य बुरी भावनाएँ नहीं रहतीं। वे जब एक दूसरे से मिलते हैं तो जाति-धर्म, छुआछूत जैसी बातें अड़चन में नहीं आती और सभी व्यक्ति प्रेम का पात्र बन जाते हैं।

हस्ती  चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि। 
स्वान  रूप  संसार है, भूँकन दे  झख मारि।3।

व्याख्या: कबीर दास जी ने प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से हमें संसार के द्वारा की जाने वाली निंदा की परवाह किए बिना ज्ञान के मार्ग पर चलते जाने का संदेश दिया है। उनके अनुसार जब हाथी चलते हुए किसी गली-मोहल्लों के बीच से गुजरता है तो गली के कुत्ते व्यर्थ ही उसपर भौंकना शुरू कर देते हैं। उनके भौंकने से हाथी रास्ता बदलने वाला नहीं है। वह तो उनके भौंकने की परवाह किए बिना स्वाभाविक रूप से सीधा अपने मार्ग में चलता जाता है। ठीक इसी तरह कवि चाहते हैं कि एख सच्चे साधक को अपने ज्ञान रूपी हाथी पर सवार होकर समाज की निंदा की परवाह किए बिना निरंतर भक्ति के मार्ग पर चलते रहना चाहिए। उनके अनुसार जब भी आप कोई ऐसा काम करेंगे जो साधारण मनुष्य के लिए कठिन हो या फिर सबसे अलग हो तो आपके आस-पड़ोस या समाज के लोग आपकी ऐसी निंदा करेंगे, जिनसे आप का मनोबल कमजोर हो जाए। इसलिए कबीरदास चाहते हैं कि उनकी बातों को अनसुना करके हमें अपना मनोबल ऊँचा रखना चाहिए और अपने सत्कर्मों पर ध्यान देना चाहिए।

पखापखी  के कारनै, सब जग रहा भुलान।
निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान।4।

व्याख्या: पक्ष और विपक्ष के चक्कर में पड़कर लोग जाति-धर्म, संप्रदाय, रंग-रूप, भाषा, ऊँच-नीच आदि में बँट गए हैं। वे हमेशा अपने पक्ष को श्रेष्ठ मानते हैं और दूसरे पक्ष की निंदा करते हैं। इसी सांसारिक प्रपंच में पडकर लोग अपने जीवन के असली उद्देश्य से भटक गए हैं। कबीर कहते हैं कि जो धर्म-संप्रदाय अथवा पक्ष-विपक्ष के चक्कर में पड़े बिना प्रभु भक्ति करता है, एक ईश्वर की पूजावास्तव में वही संत है, वही सच्चा ज्ञानी व्यक्ति है। सच्चा संत वही है जो सभी वैर-विरोध और संघर्षों से हटकर एक ईश्वर का भजन करता है। हरि भजन के लिए समर्थन-विरोध की भावना से ऊपर उठना बहुत आवश्यक है। पखापखी के कारण लोग आज अपने मूल आराध्य भगवान को ही भूल गए हैं। 

हिंदू    मूआ    राम    कहि,   मुसलमान   खुदाइ। 
कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकट न जाइ।5।

व्याख्या: कबीरदास कहते हैं कि हिंदू राम का नाम जपते हुए और मुसलमान खुदा की बंदगी करते हुए मर मिटते हैं और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कट्टरता छोड़ कर चले जाते हैं, जबकि राम और खुदा तो एक ही हैं। जो राम और खुदा के चक्कर में न पड़कर एक प्रभु की भक्ति अथवा एक मानवता का धर्म अपनाता है, वही वास्तव में सच्चा ज्ञानी व्यक्ति है। कवि के अनुसार वही सच्चे इंसान के रूप में जीवित है अथवा उसी का जीना सार्थक है। इस दोहे के माध्यम से संत कबीरदास ने धर्म को नहीं, मानवता को श्रेष्ठ स्थान प्रदान किया है।

काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।  
मोट  चून  मैदा  भया,  बैठि  कबीरा  जीम।6।

व्याख्या: काबा ही बदलकर काशी हो जाती है और राम ही रहीम होता है। यह वैसी ही बात होती है जैसे आटे को पीसने से मैदा बन जाता है, जबकि दोनों गेहूँ के ही रूप हैं। इसलिए चाहे साधक काशी जाए या काबा, राम की पूजा करे या रहीम की इबादत करे, हर हालत में वही एक भगवान का वह स्मरण कर रहा होता है। कबीरदास कहते हैं कि संप्रदाय के आग्रहों को छोड़कर साधक के द्वारा मध्यम मार्ग को अपनाये जाने पर काबा काशी हो जाता है और राम रहीम बन जाते हैं। साथ ही संप्रदाय की रूढ़ियाँ भी समाप्त हो जाती हैं। 

ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ। 
सुबरन  कलस  सुरा  भरा,  साधू   निंदा  सोइ।7।

व्याख्या: सिर्फ ऊँची जाति या ऊँचे कुल में जन्म लेने मात्र से कोई महान नहीं होता। इंसान का कर्म अधिक मायने रखता है। अपने कर्मों से ही व्यक्ति अपनी पहचान बनाता है। महान बनने के लिए कर्म भी अच्छा करना जरूरी होता है। जैसे सोने जैसी मूल्यवान धातु से बने कलश में भी यदि शराब जैसी तुच्छ चीज भरी गई हो तो सज्जन उसकी निंदा ही करते हैं। श्रेष्ठ कर्म से ही व्यक्ति महान बनता है अन्यथा वह निंदनीय होता है। 


सबद--1

मोको    कहाँ    ढूँढ़े    बंदे,    मैं   तो   तेरे   पास   में।
ना   मैं  देवल  ना मैं   मसजिद, ना काबे   कैलास में।
ना   तो  कौने  क्रिया-कर्म  में,  नहीं  योग   बैराग  में। 
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में।।

व्याख्या: ईश्वर मनुष्य से कहता है कि से साधक! तुम मुझे अपने से बाहर कहाँ ढूँढ़ने का प्रयास कर रहे हो? मैं तो तुम्हारे पास में ही हूँ। मैं न तो किसी देवालय में रहता हूँ और न किसी मस्जिद में। न काबा में रहता हूँ और न कैलाश पर्वत पर रहता हूँ। मैं किसी प्रकार की क्रियाओं और नाना प्रकार के कर्मकांडों से तथा योग साधना तथा वैराग्य धारण करने से भी नहीं पाया जा सकता। यदि सचमुच कोई मुझे खोजना चाहे तो मैं पल भर की तलाश में ही मिल सकता हूँ। हे साधको! मैं तो हर प्राणी की श्वास में बसा हुआ हूँ। प्राणी की साँस साँस में मेरा ही निवास है। अतः मुझे बाहर नहीं, अपितु हर साधक को अपने अंदर खोजने की आवश्यकता है।

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