सूरदास के पद




सूरदास के पद

(1)
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति बल बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै, नागिनी सू भुइँ लोटी।
काँचौ दूध पियावत पचि पचि, देति न माखन रोटी।
सूरज चिरजीवौ दौ भैया, हरि हलधर की जोटी।

(2)
तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ।
दुपहर दिवस जानि घर सूनो ढूँढ़ि ढँढ़ोरि आपही आयौ।
खोलि किवारि, पैठि मंदिर मैं, दूध दही सब सखनि खवायौ।
ऊखल चढ़ि, सींके कौ लीन्हौ, अनभावत भुइँ मैं ढ़रकायौ।
दिन प्रति हानि होति गोरस की, यह ढ़ोटा कौनैं ढ़ँग लायौ।
सूर स्याम कौं हटकि न राखै तैं ही पूत अनोखौ जायौ।

(3)
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी। 
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।

(4)
मन की मन ही माँझ रही। 
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही। 
अब इन जोग सँदेसनि सुनि सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही। 
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।

(5)
हमारैं हरि हारिल की लकरी। 
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी। 
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।    
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।

(6)
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए। 
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए। 
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए। 
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए। 
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए। 
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए। 
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए। 
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।

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