शब्द संदोह/ मूलः जनार्दन घिमिरे
-- पुरुषोत्तम पोख्रल
विभागाध्यक्ष (हिंदी)
डीएवी सुशील केडिया विश्वभारती
काठमांडू, नेपाल
बचपन में मैंने संस्कृत पढ़ने में कभी रुचि नहीं दिखाई, जबकि असमीया, हिंदी, अंग्रेजी, नेपाली, बंगाली आदि भाषाओं के प्रति विद्यार्थी जीवन में मेरी अधिक रुचि रही जो आज भी कायम है। जब तक मुझे संस्कृत का महत्व समझ में आने लगा तब तक मेरा औपचारिक विद्यार्थी जीवन समाप्त हो चुका था। अनौपचारिक रूप में संस्कृत सीखने में मैंने कभी रुचि नहीं दिखाई। मेरे पिताजी संस्कृत के एक बहुत अच्छे जानकार थे। बचपन में संस्कृत सीखने के हल्के दबाव पिताजी से हमेशा प्राप्त होते रहे, लेकिन मजबूर कभी नहीं किया। बचपन से ही इस भाषा में श्राद्धादि कर्मकांड आदि मात्र होते हुए देखा। संस्कृत सीखने वाले विद्यार्थियों को भी श्राद्ध, कथा वाचन, स्तोत्र वाचन से आगे कुछ विशेष करते हुए नहीं देखा। विद्यालय स्तर में संस्कृत अध्यापन करने वाले गुरुवर्ग को भी श्राद्ध, पूजा-पाठ आदि कार्यों में ही ज्यादातर उलझते देखा। संस्कृत कितनी विशालता समेटी हुई भाषा है, इसकी महत्ता न विद्यार्थियों को कोई समझा पा रहा था, न गुरुवर्ग ही देने में रूचि
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