सूरदास के पद (पदों की व्याख्या)
सूरदास के पद
पहले पद की व्याख्या
ऊपर्युक्त पद में गोपियाँ उद्धव पर व्यंग करते हुए कहती हैं कि उद्धव कृष्ण के निकट रहकर भी उनके प्रेम में नहीं बँधे हैं । वे बड़े ही भाग्यशाली हैं कि कृष्ण के प्रति उनके मनमें जरा भी मोह नहीं है। किसी भी प्रकार का बंधन या अनुराग नहीं है। बल्कि वे तो कृष्ण के प्रेम रस से बिलकुल अछूते हैं। वह उस कमल के पत्ते की तरह हैं जो जल के भीतर रहकर भी गिला नहीं होता। जैसे तेल से चुपड़े हुए गागर पर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहरती, वैसे ही उद्धव पर भी कृष्ण के प्रेम का कोई असर नहीं हुआ है। प्रेम की नदी अथवा सागर स्वरूप श्रीकृष्ण के इतने निकट होकर भी उसमें उन्होंनेे अपने पाँव नहीं डुबोए हैं। उनका मन कृष्ण के सौंदर्य पराग पर भी कभी मोहित नहीं होता। वास्तव में गोपियाँ कृष्ण के प्रति उद्धव की इस अनुरागहीनता पर अचंभित हैं । अंत में गोपियाँ कहती हैं कि वे तो अबला और भोली हैं। उनमें इतनी क्षमता अथवा शक्ति नहीं है कि कृष्णप्रेम से वह अलग हो सकें। वह तो कृष्ण के प्रति प्रेम में इस तरह आकर्षित हो गईं, इस तरह कृष्ण प्रेम में लिपट गईं जैसे गुड़ में चींटियाँ लिपट जाती हैं। चींटियाँ गुड़ पर आकृष्ट होने के बाद जिस तरह चाहकर भी उससे कभी मुक्त नहीं हो पाती हैं, गोपियों की भी वही दशा है। वह भी कृष्ण के प्रेम में आकर्षित होने के बाद कभी उससे मुक्त नहीं हो पाईं।
दूसरे पद की व्याख्या
उपर्युक्त पंक्तियों में गोपियाँ अपने मन की पीड़ा को उद्धव के समक्ष व्यक्त कर रही हैं। वह उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! वह अपने मन का दर्द व्यक्त करना चाहती तो हैं लेकिन किसी के सामने कह नहीं पातीं। बल्कि उसे मन में ही दबाने को मजबूर हैं। पहले गोपियाँ कृष्ण के आने के इंतजार में अपने मन की व्यथा भी सह रही थीं, लेकिन कृष्ण का संदेश लेकर उनके स्थान पर जब उद्धव आए और कृष्ण के आने की संभावना समाप्त हो गई तो वे अपने मन की व्यथा सह नहीं पा रहीं। कृष्ण से विरह की पीड़ा में उनका मन जलने लगता है। गोपियाँ चाहती थीं कि कृष्ण के आने पर वह उनसे मन की पीड़ा दूर करने की गुहार लगाएँगी, लेकिन इसके विपरीत कृष्ण की ओर से योग की धारा बहने लगी। इससे तो गोपियों की विरहाग्नि और तीव्र हो गई और भविष्य में कृष्ण से मिलने की आशा ही समाप्त हो गई। सूरदास जी कहते हैं कि अब गोपियाँ ही क्यों धीरज धरें, जबकि कृष्ण ने ही प्रेम की मर्यादा नहीं रखी।
तीसरे पद की व्याख्या
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ 'सूर' तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।
उपर्युक्त पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनके लिए तो कृष्ण हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जैसे हारिल पक्षी किसी लकड़ी के एक टुकड़े को सदैव पकड़े ही रहता है, उसी तरह उन्होंने भी नंद-नंदन कान्हा को अपने हृदय में निरंतर दृढ़ता के साथ धारण किया हुआ है। वह जागते हुए, सोते हुए, सपने में, दिन में, रात में -- हर पल केवल कान्हा का नाम ही रटती रहती हैं। उद्धव के द्वारा लाया गया योग संदेश तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे वह कोई कड़वी ककड़ी हो। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनके लिए उद्धव योग रूपी व्याधि या बीमारी ले आए, जिसे न कभी उन्होंने आँखों से देखा था, न कभी कानों से सुना था और न कभी योग किया ही था। सूरदास जी कहते हैं कि अंत में गोपियाँ अपने मन के उद्गारों को व्यक्त करती हुई कहती हैं कि उद्धव इस योग की चर्चा उनसे जाकर करें जिनका मन अत्यंत चंचल है, स्थिर नहीं है और कृष्ण अथवा ईश्वर के प्रति अनुरक्त नहीं है। अस्थिर व चंचल प्रवृत्ति वाले ही तुम्हारे इस उपदेश को सुनकर मन को स्थिर कर सकते हैं। गोपियाँ तो अपने मन को कृष्णप्रेम में पहले से ही स्थिर कर चुकी हैं।
चौथे पद की व्याख्या
इन पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि श्रीकृष्ण तो अब राजनीति सीख गए हैं। स्वयं न आकर उद्धव को भेज दिया है ताकि वहाँ बैठे-बैठे ही सारा हाल जान सकें। एक तो वे पहले से ही चतुर थे, अब तो लगता है कि राजनीति संबंधी गुरु ग्रंथ भी पढ़ लिए हैं। कृष्ण ने बहुत अधिक बुद्धि लगाकर गोपियों के लिए योग का संदेश भेजा है। हे उद्धव! पहले के लोग ही बहुत भले थे, जो दूसरों की भलाई के लिए दौड़े चले आते थे। गोपियों को लगता है कि अब उन्हें श्रीकृष्ण से अपना मन फेर लेना चाहिए क्योंकि श्रीकृष्ण अब उनसे मिलना ही नहीं चाहते हैं। वे चाहती हैं कि कृष्ण उनके मन लौटा दें, जो उन्होंने चलते समय चुराए थे। गोपियों को आश्चर्य होता है कि जो श्रीकृष्ण दूसरों को अनीति करने से रोकते हैं, वे स्वयं दूसरों पर(गोपियों पर) अन्याय कर रहे हैं। कृष्ण को तो राजधर्म का पता होना चाहिए। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ आपस में कह रही हैं कि राजधर्म तो यही है कि राजा अपनी प्रजा को न सताए। गोपियों को इस तरह दुखी करके श्रीकृष्ण कैसा राज धर्म निभा रहे हैं? उनको अपनी प्रजा को नहीं सताना चाहिए।
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