कृष्ण लीला

 कृष्ण लीला


(1) मथुरा कारागार में श्रीकृष्ण जन्म और गोकुल में स्थानांतरण प्रसंग 


(कारागार में दैवीय चमत्कार -- अँधेरा -- कारागार की सलाखें -- बेड़ियों में जकड़े वसुदेव और देवकी -- मूसलधार वर्षा -- बिजली की गड़गड़ाहट -- पृष्ठभूमि में यमुना नदी का प्रवाह ध्वनि -- कंस के सैनिकों की भारी पदचाप ध्वनि)


देवकी: (कारागार में शोक भरे स्वर में) हे वसुदेव! कंस ने एक-एक कर हमारे सात पुत्रों को मार डाला। मेरे गर्भ में पल रहे इस आठवें पुत्र का भी क्या वही भाग्य होगा? मेरे हृदय में भारी भय हो रहा है, स्वामी!


वसुदेव: (सांत्वना देते हुए) धैर्य रखो, देवकी! आकाशवाणी याद करो। ईश्वर ने हमें आश्वासन दिया है। आठवीं संतान कोई साधारण पुत्र नहीं होगा। वह हमारी ही नहीं संपूर्ण धरती का उद्धारकर्ता होगा।


[मंच पर मधुर ध्वनि -- भारी वर्षा की आवाज -- कारागार में सौम्य नीला प्रकाश -- श्रीकृष्ण का चतुर्भुज स्वरूप में जन्म -- शंख, चक्र, गदा, पद्म लिए चतुर्भुज रूप में श्रीकृष्ण का प्रकट होना] 


देवकी: हे प्रभु! हम तो आप के शिशु रूप की प्रतीक्षा कर रहे थे। यह कैसा चमत्कार! हम कारागार में लंबे समय से बंदी हैं। हमारा उद्धार कीजिए, प्रभु! हमारा उद्धार कीजिए। 


वसुदेवः हे चतुर्भुज नारायण! हम आपके दर्शन से धन्य हुए। कृपया हमारा मार्गदर्शन करें। कंस का त्रास हमें घेरे हुए है प्रभु। 


चतुर्भुज कृष्णः हे माता पिता! कंस के अत्याचारों का अंत, अधर्म का नाश और समाज में धर्म की पुनः स्थापना के लिए अब मेरा इस धरती पर अवतरण हो चुका है। मेरी योगमाया तुम्हारी रक्षा करेगी। वसुदेव! विलंब किए बिना तत्काल गोकुल में नंद और यशोदा के गृह में मुझे ले जाओ और वहाँ की नवजात कन्या को यहॉं लेकर आओ। 



[मथुरा का कारागार -- मंच पर अँधेरा, केवल एक दीपक की मद्धम रोशनी -- देवकी और वसुदेव बँधे हुए हैं -- बाहर तूफान और बारिश की आवाज -- अचानक एक दिव्य प्रकाश मंच पर फैलता है -- नवजात कृष्ण की आकृति/झलक दिखाई देती है।]



(कारागार के द्वार अपने आप खुल जाते हैं। सारे पहरेदार सैनिक गहरी नींद में सोए हुए दिखाई देते हैं।)


(यमुना तट -- मंच पर नीली रोशनी, यमुना नदी का दृश्य -- बारिश और तूफान की आवाज -- वासुदेव नवजात कृष्ण को एक टोकरी पर सिर पर उठाकर ले जा रहे हैं।

उनके सामने उफनती यमुना नदी है -- और सिर पर शिशु कृष्ण -- दैवीय शक्ति उनकी रक्षा करती है -- शेषनाग की आकृति मंच पर दिखती है, जो वासुदेव के ऊपर छत्र बनकर बारिश से उनकी रक्षा करता है।)


शेषनाग: (आवाज) हे वसुदेव! छाया देकर मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। इस बालक को शीघ्र गोकुल ले जाओ।  


वसुदेव: (हाथ जोड़कर) हे शेषनाग, यह आपकी कृपा है। मैं यह कार्य अवश्य पूर्ण करूँगा।


वसुदेव: (यमुना नदी से प्रार्थना करते हुए) हे माते यमुना! कृपया इस बालक की रक्षा करें। हमें पार होने दें माते!


(गोकुल में नंद-यशोदा का घर -- मंच पर गोकुल का घर -- यशोदा सो रही हैं -- उनके पास एक नवजात कन्या है।)


(वसुदेव नंदगृह में प्रवेश करते हैं -- वे शिशु कृष्ण को यशोदा के पास रखते हैं और कन्या को उठा लेते हैं।)


वासुदेव: (धीरे से) हे यशोदा! आज से यह पुत्र तुम्हारा हुआ जो संपूर्ण विश्व का रक्षक बनेगा। इसकी देखभाल में कोई कमी मत करना। ईश्वर इच्छा के अनुसार तुम्हारी इस कन्या को मैं मथुरा ले जा रहा हूँ। 


(वसुदेव चुपके से निकल जाते हैं -- यशोदा जागती हैं और नवजात शिशु को देखकर अत्यंत हर्षित होती हैं।)


(वसुदेव उसी तरह टोकरी में कन्या संतान को लेकर कारागार वापस लौटते हैं -- कारागर पहुँचते ही कारागार के दरवाजे फिर से बंद हो जाते हैं -- पहरेदार उठ खड़े होते हैं -- कारागार के भीतर से एक शिशु के क्रंदन की आवाज -- द्वारपाल जाकर महाराज को सूचना देते हैं)


दोनों पहरेदार: (एक साथ) महाराज! कारागार से आठवें शिशु के क्रंदन की आवाज सुनाई दे रही है।


(कंस क्रोधित -- वासुदेव-देवकी से शिशु को छिन लेता है और... गर्जना करते हुए)


कंस: वसुदेव! यह क्या छल है? यह तो कन्या है!


वसुदेव: (शांत स्वर में) कंस, यह तुम्हारी नियति है। यह कन्या 


(कंस कन्या को मारने का प्रयास करता है, परंतु कन्या आकाश में उड़कर योगमाया के रूप में प्रकट होती है।)


योगमाया: (आकाश से) मूर्ख कंस! तेरा काल गोकुल में पल रहा है। तेरा अंत अब निश्चित है।


(कंस भयभीत होकर पीछे हटता है। मंच पर अँधेरा छा जाता है।)


कंस: यह सरासर छल है। देवता भी मुझसे डरने लगे हैं। मुझे हराने के लिए अब उनको भी छल-कपट करना पड़ रहा है। 


अब मुझे गोकुल में पल रहे सभी नवजातों की हत्या करना होगा। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।



=============================


(2) श्रीकृष्ण के माटी खाने का प्रसंग 



[गोकुल का रमणीय गाँव -- यशोदा का मटकियों और मक्खन से भरे घड़ों से सजा घर -- श्रीकृष्ण बहुत सारे बाल सखाओं के साथ आँगन में खेल रहे हैं -- यमुना नदी की लहरों की ध्वनि -- गायों की घंटियों की आवाज -- मुरली की मंद मधुर ध्वनि]


मधुमंगलः कान्हा! कान्हा!! छुप छुप कर क्या कर रहे हो तुम कान्हा? अरे! तुम फिर माटी खा रहे हो? अगर मैया यशोदा को पता चल गया तो तुम्हें नहीं छोड़ेगी मैया। 


श्रीकृष्णः अरे मधुमंगल! तूम क्या जानो मिट्टी का स्वाद? मिट्टी तो मक्खन से भी स्वादिष्ट होता है।

लो, तूम भी खा लो थोड़ा।


मधुमंगलः छि:! छि:! छिः! छिः! मैं नहीं खाता तुम्हारी तरह मिट्टी कान्हा।


[कुछ सखा दौड़ कर जाकर मैया यशोदा से शिकायत करते हैं। यशोदा एक छोटी छड़ी लिए कृष्ण के पास पहुँचती है।]


श्रीदामः (मैया यशोदा से) देखा न मैया यशोदा! हमने कितना मना किया कान्हा को। पर कान्हा है कि मानता ही नहीं। 


यशोदाः (नाराज स्वर में) कान्हा! कितनी बार कहा तुझे, मिट्टी नहीं खाते। मिट्टी नहीं खाते। पर तू है कि मिट्टी खाना छोड़ता ही नहीं। कितनी अच्छी लगती है तुझे मिट्टी। आ! चल!! आज तुझे मैं नहीं छोड़ूँगी।


कान्हा: छोड़ दो मैया मुझे! छोड़ दो न मैया!! नहीं खाई है मैंने मिट्टी।


यशोदा: नहीं खाई है मैंने मिट्टी। मुँह खोल! खोल मुँह!! कितनी बार कहा तुझे, मिट्टी खाना अच्छा नहीं। अब मुँह खोल कान्हा। मुझे देखना है कि तूने कितनी मिट्टी खाई है और क्या क्या खाया है।


कान्हाः (दूसरी ओर मुँह करते हुए) मैया! तुम भी। मैंने कुछ नहीं खाया है। मेरे सखा झूठ बोल रहे हैं कि मैंने माटी खाई। नहीं खोलूँगा मैं मुँह। 


यशोदाः (जिद्दी स्वर में) क्या? नहीं खोलेगा मुँह? तू मेरी बात नहीं मानेगा? खोल जल्दी मुँह। नहीं तो मैं सचमुच नाराज हो जाऊँगी। 


[कुछ नाराजगी, कुछ नटखटपन के साथ श्री कृष्ण मुँह खोलते हैं -- मुँह के भीतर अलौकिक दृश्य.....]

 


============================



(3) ओखल में बाँधा जाना/दामोदर लीला 


[गोकुल का रमणीय गाँव -- नंद यशोदा का घर -- माखन और दही से भरी मटकियाँ -- आँगन में बड़ा सा ओखल -- आँगन में दो विशाल वृक्ष -- श्रीकृष्ण और सखा एक गोपी के घर में माखन की चोरी करते हुए -- श्रीकृष्ण के मुँह पर मक्खन लगा हुआ है -- कान्हा सखाओं को भी माखन खिला रहे हैं]


मधुमंगल: हम्म! कान्हा, यह माखन तो माखन नहीं, स्वर्ग का अमृत है। कान्हा, और थोड़ा दो न?


कृष्णः तुम चिंता मत करो मधुमंगल। ये लो। और... सुदामा, श्रीधर, विशाल, रसाल -- और सभीको यहाँ बुलाओ। इतना स्वादिष्ट माखन फिर नहीं मिलेगा।


[गोपियों के मंच में आने की आहट -- गोपियों के पीछे-पीछे यशोदा मैया का भी मंच पर प्रवेश]


गोपीः देखा यशोदा मैया! देखा न!! तुम्हारा कान्हा फिर हमारी मटकियाँ तोड़ गया। मक्खन तो खाया ही। और देखिए इतनी सुंदर मटकियों का भी नुकसान कर गया। 


श्रीकृष्णः नहीं मैया! मैंने माखन नहीं खाया। गोपियाँ झूठ बोल रही हैं मैया। हम इतने छोटे-छोटे कद के और हमारे ये छोटे-छोटे हाथ। इतनी ऊपर रखी मटकियों तक ये कैसे पहुँच सकते हैं भला। तूम ही सोचो न मैया। 


यशोदाः ज्यादा नाटक मत कर कान्हा। आज तो मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है तुम्हें। मटकियों तक पहुँचने के लिए तुम क्या-क्या करते हो?


[कान्हा डर के मारे भागने लगता है। मैया पीछे-पीछे दौड़ती है। कान्हा मुश्किल से पकड़ में आता है और ....]


यशोदा: बस अब बहुत हुआ कान्हा। तुम्हारी यह शरारतें हद से ज्यादा ही हो गई हैं। आज तो मैं दिन भर तुम्हें रस्सी से ओखल में बाँध कर रखूँगी, ताकि तुम्हें जीवन भर की सीख मिले।


[यशोदा का प्रस्थान और हाथ में एक रस्सी लेकर पुनः मंच में आगमन -- कृष्ण इधर-उधर भागते हुए -- काफी भाग-दौड़ के बाद यशोदा कृष्ण को पकड़ लेती है -- बाल सखाएँ और गोपियाँ उत्सुकता के साथ देख रहे हैं...]


यशोदाः आज तो तुम नहीं बचोगे कान्हा! कितना कहा, माखन चोरी मत किया करो। ग्रामवासियों को परेशान मत किया करो। पर तूम हो कि मानते ही नहीं। आज तुम्हे मैं इसी ओखल से बाँधूँगी दिनभर। 


कृष्णः मैंने तो बस थोड़ा-सा ही माखन खाया। और इतना बड़ा दंड दे रही हो तुम मैया! छोड़ भी दो न मैया। क्यों अपने ही लाल को तुम दंड दे रही हो। मुझे मत बाँधो मैया। मुझे मत बाँधो। 


[यशोदा का रस्सी से श्री कृष्ण को ओखल से बाँधने की कोशिश -- रस्सी का बार-बार छोटा पड़ जाना -- किसी भी रस्सी का पर्याप्त न होना]


यशोदाः यह क्या! यह रस्सी तो हर बार दो अंगुल छोटी पड़ रही है!


[यशोदा मैया और रस्सियाँ जोड़ती है -- फिर भी रस्सी छोटी पड़ जाती है -- सखा और गोपियों हँसती हैं -- अंत में मैया कान्हा को बाँधने में सफल हो जाती है -- मैया यशोदा घर का काम करने भीतर प्रवेश कर जाती है।]


[सुनसान माहौल -- कान्हा ओखल को खींचते हुए दो पेड़ों के बीच से निकल जाते हैं -- ओखल बीच में अटक जाता है -- कृष्ण का जोर लगाना -- वृक्षों का बड़े शब्दों के साथ गिरना -- और मणिग्रीव एवं नलकुबेर का निकलना]


मणिग्रीव/नलकुबेरः हे कृष्ण! हमने पिछले जन्म में अज्ञानतावश जो अपराध किया था, कृपया उसके लिए हमें क्षमा करें और अपने चरणों में स्थान प्रदान करें, प्रभु।


============================


(4) माखन चोरी/शरारत/मटकी फोड़ लीला 


मधुमंगलः देखो, कान्हा! कान्हा, देखो न इधर। इस गोपी के घर में माखन की मटकियाँ लटक रही हैं। (सूँघते हुए) वाह! कितनी भीनी-भीनी खुशबू आ रही है, कान्हा।


कृष्ण: अरे मधु मंगल! ये दही-माखन तो गोपियों ने हमारे लिए ही रख छोड़ा होगा। 


सुदामाः लेकिन हम इसे खाएँगे कैसे कान्हा! इतने ऊपर टँगी हैं जो मटकियाँ। 


कान्हा: कैसे नहीं खाएँगे इन्हें, सुदामा! थोड़ा धैर्य तो रखो। और थोड़ा साहस से भी काम लेना होगा, सुदामा। चलो एक काम करते हैं। हम कंधे से कंधा जोड़कर ऊपर चढ़ते जाएँगे और मटकी पकड़ेंगे। है न? चल सुदामा, तू ऊपर चढ़। 


सुदामा: न बाबा! मुझे तो डर लगता है कान्हा। गिर गया तो? 


कान्हा: वाह! माखन का स्वाद भी पाना चाहते हो और ऊपर चढ़ने से डरते भी हो? डरपोक कहीं के। तुम चढ़ोगे मधुमंगल? 


मधुमंगलः मुझे भी ऊँचाई से डर लगता है कान्हा। हम तुम्हें गिरने नहीं देंगे और तुम्हें थाम लेंगे। तुम चढ़ो न कान्हा।


कान्हा: अच्छा, मैं चढूँ! गिरने तो नहीं दोगे न?


सभी: गिरने नहीं देंगे, कान्हा। नहीं देंगे गिरने।


[सारे बच्चे 'कान्हा! कान्हा!! कान्हा!! कान्हा!!' का शोर मचाने लगते हैं।]



============================


(5) कालीय दमन प्रसंग 


[यमुना तट -- कदंब वृक्ष -- विभिन्न कार्यों में व्यस्त गोकुलनिवासी/कृष्ण सखा -- कदम तट की छाया में कृष्ण का सखाओं के साथ गेंद खेलना -- गोकुलवासी गाय चरा रहे हैं -- सखाओं की हँसी-ठठोली]


मधुमंगल: गीत को इतनी जोर से तो मत फेंको न कान्हा! वरना गेंद नदी में चली जाएगी। फिर खेलते रह जाओगे। 


कृष्णः अरे श्रीदाम! ये गेंद तो होते ही खेलने-फेंकने के लिए हैं। अगर यह यमुना में गिर भी गई तो क्या हुआ? मैं लेकर आऊँगा।


(इतने में गेंद सच में ही यमुना नदी के गहरे जल में गिर जाती है -- कान्हा यमुना नदी की ओर बढ़ते हैं -- बच्चे शोर मचाते हैं... 


कान्हा! सखा कान्हा!! रुक जाओ कान्हा!!! गेंद छोड़ दो। हम नई गेंद ले आएँगे। यमुना नदी में कालिया नाग का निवास है कान्हा!!!


कृष्णः सखा! डरने की क्या बात है? गेंद तो निकालना ही होगा न! नहीं तो हम क्या खेलेंगे? और कालिय नाग का घमंड भी तो तोड़ने का समय आ गया है! 


[कृष्ण का नदी में छलांग लगाना -- कालिय नाग से भयंकर युद्ध -- लंबे समय के युद्ध पश्चात कालिय नाग का थक जाना/हार जाना -- नाग पत्नियों की कृष्ण स्तुति] 


5नागपत्नियाँ: (आँसुओं से भीगे स्वर में, हाथ जोड़कर): "हे कृपासिन्धु, हे विश्वनाथ! आप सृष्टि के आधार, जीवों के एकमात्र रक्षक हैं। हमारे स्वामी कालीय ने अज्ञान के अंधकार में डूबकर यह महापाप किया कि उसका विष इस पवित्र यमुना को दूषित कर गया। उसका अहंकार आपकी अनंत शक्ति को न समझ सका। हे प्रभु, हम आपकी शरण में हैं। अपनी करुणा की एक किरण से हमारे स्वामी की जीवन रक्षा करें, जीवन दान दें। और हम सभी को क्षमा करें प्रभु, क्षमा कर दें।"


कृष्णः कालिय! अपनी और अपने वंश की भलाई और रक्षा चाहते हो तो तुम सभी तुरंत यमुना छोड़ दो और समुद्र की ओर प्रस्थान करो ताकि गोकुल और वृंदावन निवासियों को शांति मिले।


[कालिय का सिर झुकाकर समुद्र की ओर प्रस्थान

-- श्रीकृष्ण का गेंद लेकर यमुना से बाहर निकलना -- यमुना का जल निर्मल हो जाना -- कृष्ण की सखा-सखी/समस्त गोकुलवासियों का उत्साहित-आनंदित होकर कृष्ण की जय-जयकार लगाना -- 


सारे: जय श्रीकृष्ण! जय श्रीकृष्ण!!


[गोकुलवासियों के द्वारा श्रीकृष्ण को कंधे पर उठा लेना और नारे लगाना 'जय श्रीकृष्ण!' 'जय श्रीकृष्ण!!']



===========================


(6) गोवर्धन धारण लीला 


नंद बाबा: (उपस्थित समूह से) हम हर वर्ष इंद्रदेव की पूजा करते हैं, ताकि वर्षा हो। हमारी फसलें लहलहाएँ। प्रकृति में, हमारे चारों ओर के वातावरण में सुख, शांति और शीतलता हो। आइए, आज भी उत्साह और उल्लास के साथ हम सभी इंद्र देवता की पूजा करें। 


कृष्णः लेकिन इंद्र की पूजा क्यों बाबा? हमारी गायों को घास, चारा तो गोवर्धन पर्वत देता है न? और हमारी फसलें भी हमेशा यमौना का पानी सींचता है, यमुना नदी सींचती है। हमें तो गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए न, बाबा! इंद्र की क्यों?


यशोदा मैया: लेकिन कान्हा! ऐसा करने पर तो इंद्र देवता रुष्ट हो जाएँगे। फिर वर्षा और फसल का क्या होगा? 


गोपियाँ: हाँ कान्हा! हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। अगर इंद्र देवता क्रोधित हो गए तो सारा अनर्थ हो जाएगा, कान्हा। 


कान्हा: चिंता न करो। हम सभी का, हमारी गायों का, हमारी खेती और फसलों का रक्षक तो गोवर्धन पर्वत है न? मेरी बात मानिए। इसलिए आइए, सब मिलकर इस बार हम गोवर्धन पर्वत की पूजा करें। यही तो हमारा सच्चा पालनहार है। इसकी पूजा कर हम प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता भी प्रकट करेंगे।


[गोवर्धन पूजा प्रारंभ -- फल-फूल, मिष्ठान्न अर्पण -- हवन कार्य -- अचानक आकाश में काले बादल -- मूसलधार वर्षा -- बिजली कड़कना -- अँधेरा छा जाना.... ]


श्रीकृष्ण: पिताश्री! मैया!! बिल्कुल भी भयभीत मत होना। मेरे गोकुल/वृंदावन निवासियों! गोवर्धन पर्वत हमेशा हमारी रक्षा करता आया है और आज भी यही गोवर्धन हमारी रक्षा करेगा। मैं गोवर्धन को धारण करूँगा। समस्त वृंदावन निवासियों! सारे मेरे साथ आओ। 


श्रीकृष्ण और सभी गोवर्धन पर्वत के पास जाते हैं -- वह अपनी कनिष्ठिका पर गोवर्धन पर्वत धारण कर लेते हैं -- वृंदावन/गोकुल निवासी पर्वत के नीचे शरण लेते हैं -- लगातार वर्षा -- गायों की आवाज -- गाएँ भी शरण में ...

इंद्र का अहंकार टूटना -- कामधेनु गाय के साथ इंद्र का श्रीकृष्ण समक्ष अवतरण और क्षमा याचना]


इंद्रः हे नाथ! हे विश्वरक्षक!! मैंने अपने अहंकारवश तुम्हारी शक्ति को नहीं पहचाना। मेरी पूजा के बदले गोवर्धन पूजा होने के कारण क्रोधित होकर मैंने प्रलयंकारी वर्षा की। कृपया क्षमा करें प्रभु! क्षमा करें!! 


कृष्णः इंद्र! तुम्हारा कर्तव्य प्रकृति का संतुलन बनाए रखना है, न कि अहंकार में सृष्टि का विनाश करना और जीवों को कष्ट देना। मुझे अपनी गायों की, निर्दोष जीवों की और गोकुल वासियों की रक्षा के लिए इस लीला को रचना पड़ा। अब जाओ इंद्र! व्यर्थ का अहंकार मत पालो। धर्म का पालन करो और अपनी शक्ति से इस सृष्टि की रक्षा करो। हमारा कर्तव्य इस सृष्टि की रक्षा करना होना चाहिए, इसका विनाश करना नहीं।


[सूर्य की किरणें गोकुल को आलोकित करती हैं -- श्री कृष्ण सुरक्षित गोवर्धन पर्वत को धरती पर

पुनः स्थापित करते हैं -- गोकुलवासी अत्यन्त आनंदित होकर श्रीकृष्ण की जय जय कार लगाते हैं -- जय श्रीकृष्ण! जय श्रीकृष्ण!! जय गोवर्धनधारी! जय गोवर्धनधारी!!]


=====================≈======


(7) रासलीला


[यमुना तट -- चाँदनी रात -- चारों ओर फूल-पत्ते, पेड़-पौधे -- मुरली की मोहक धुन -- गोपियाँ एकत्र होने लगते हैं -- अपनी सखी-सहेलियों के साथ बातें करते हुए गोपियों का मंच पर आना]


राधाः कितनी मधुर धुन! सखी, सुना तुमने? कान्हा कैसे बजाता है इतनी मधुर धुन! 


विशाखा: श्याम की बातें श्याम ही जाने। लेकिन यह सच है राधा, श्याम के समान तो और कोई नहीं बजा सकता इतनी मधुर धुन। 


राधा: कान्हा जब मुरली बजाता है, मेरा तो बस में नहीं होता मन। खिंची चली जाती हूँ हमेशा उनकी ओर। लगता है दिन-रात सुनती रहूँ, सुनती रहूँ। खो जाऊँ उसी धुन में। 


गोपियाँ: (एक स्वर में) हम सब की हालत एक जैसी है, राधा। आओ चलते हैं उसी धुन की ओर।



===========================


(8) कंस वध 


[मथुरा की रंगशाला -- राज सभा -- कंस का सिंहासन -- पृष्ठभूमि में ढोल, शंखनाद, तलवारों की झंकार] 


कंसः हा हा हा हा! यह गाय चराने वाला मुझे मारेगा? मैं मथुरा का राजा कंस हूँ। तीनों लोक मेरे नाम से थर-थर काँपते हैं। और ... और तुझे मारने के लिए तो मेरे दो मल्ल योद्धा ही पर्याप्त हैं।

द्वारपाल! चाणूर और मुष्टिक को बुलाओ यहॉं। 


द्वारपालः जो आज्ञा महाराज! 


[कुछ देर में चाणूर और मुष्टिक का मंच में प्रवेश]


कंसः चाणूर! मुष्टिक!! बहुत दिनों से तुमने कुश्ती में हाथ नहीं आजमाए हैं। जाओ, रंगशाला में जाकर इन दो ग्वालों को कुश्ती में कुचल दो।


चाणूर/मुष्टिकः (एक साथ) जैसी आपकी आज्ञा, महाराज!! 


[चाणूर और मुष्टिक रंगशाला में कृष्ण बलराम से कुश्ती के लिए उतरते हैं -- तीव्र और भयानक युद्ध -- कृष्ण चाणूर को और बलराम मुष्टिक को अपने शक्तिशाली प्रहारों से मार डालते हैं]


[श्रीकृष्ण कंस की राज्यसभा में आते हैं और...]


श्रीकृष्णः कंस! तेरे मल्ल योद्धाओं को हमने मिट्टी में मिला दिया है। अब मिट्टी का स्वाद चखने की बारी तेरी है मामा कंस।



कृष्ण: हे गोपबालक कृष्ण! तूने मेरे मल्ल योद्धाओं को मारा। आज तू मेरे हाथों से बचकर नहीं जाएगा ग्वाले। तुझ में इतना साहस कि तीनों लोकों के सबसे बड़े वीर को मारने चला है। 


कृष्णः मामा कंस! तूझे स्वयं को साहसी और वीर कहते हुए लज्जा नहीं आती! जो पेट में पल रहे बच्चों तक से डरता है, जो जन्म होते ही नवजात शिशुओं की निर्मम हत्या करता है, जो अबला स्त्री अपनी बहन तक को कारागार में बंदी बनाकर रखता है, जो अपनी कमजोर प्रजाओं को हमेशा त्रास के बीच रखता है, वह मुझे साहस की सीख देता है? 


कंसः तू मेरे साहस को ललकारता है ग्वाले! तुझे तो मैं सबक सिखा कर रहूँगा। अब मेरी तलवार से तुझे कोई नहीं बचा सकती कृष्ण। 


कृष्णः अत्याचारी कंस! अब तेरा समय समाप्त हो चुका है। आ जा! कौन तुझे आज मेरे हाथों से बचाता है। आज से इस धरती से तेरे सभी प्रकार के डर त्रास अत्याचार समाप्त हो जाएँगे और यह धरती तेरे पाप, अन्याय, अधर्म, अत्याचारों से सदा सदा के लिए मुक्त हो जाएगी।


[कृष्ण कंस के बीच भयंकर युद्ध -- अंततः श्री कृष्ण के हाथों उनकी जोरदार मुष्टि प्रहार से कंस का अंत होता है] 


समस्त मथुरा वासियों में हर्षोल्लास -- मुरलीधर श्री कृष्ण की जय -- बलराम दाऊ की जय नारों के साथ जयघोष 

श्री कृष्ण की जय -- जय श्रीकृष्ण -- जय श्रीकृष्ण -- जय श्रीकृष्ण -- जय श्रीकृष्ण 



=========================≈=


(9) कृष्ण-सुदामा प्रसंग


[मुरली की अति करुण हृदय स्पर्शी धुन -- सुदामा के घर का दुखभरा वातावरण -- सुदामा की टूटी-फूटी झोपड़ी] 


सुदामा पत्नी सुशीला: कब तक हम इसी तरह जीते रहेंगे! खाने के लिए घर में एक दाना नहीं है! कुछ तो कीजिए स्वामी! 


सुदामा: तो क्यों न हम एक वक्त का उपवास रखें। भगवान की भक्ति भी हो जाएगी और उपवास भी हो जाएगा। 


सुशीला: कैसी बातें करते हो स्वामी। हम तो उपवास भी कर लेंगे। लेकिन ... लेकिन ये बच्चे भी उपवास करेंगे? कई दिनों के भूखे हैं ये भी हमारी तरह।


बच्चा 1: पिताजी! जोरों की भूख लगी है। 


बच्चा 2: पिताजी! पिताजी!! क्या आज भी हमें भूखे सोना पड़ेगा? 


सुशीला: कब तक आप बच्चों को भूखा रखेंगे, स्वामी? कितनी बार मैं आपसे विनती कर चुकी हूँ, अपने बाल सखा श्रीकृष्ण के पास तो होकर आइए। सुना है वह सब का कष्ट करते हैं। सबका सुनते हैं। आपके तो बचपन के परम मित्र हैं वे।


सुदामा: तुम्हारा आग्रह मैं नहीं टालूँगा, सुशीले। परंतु सुनो। कृष्ण से मैं कुछ माँगूँगा नहीं। दरिद्रता है मेरे जीवन में। परंतु आज तक मैंने किसी से कुछ माँगा नहीं है प्रिये। 


सुशीला: कृष्ण तो अंतर्यामी हैं स्वामी। क्या आपकी दीनदशा, दुख-कष्ट और आवश्यकता भी नहीं समझेंगे?


[सुदामा का द्वारका गमन]




============================


(10) धृतराष्ट्र की राज्यसभा/द्रौपदी चीर हरण


[हस्तिनापुर की भव्य राज्यसभा -- धृतराष्ट्र, कौरव, पांडव, दरबारियों की भीड़....

पात्रः द्रोपदी, धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दुःशासन, भीष्म, द्रोणाचार्य, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, शकुनि, कर्ण ....]


दुर्योधनः युधिष्ठिर! तू सब कुछ द्यूत क्रीड़ा में हार चुका है। यहॉं तक कि द्रौपदी को भी। अब वह हमारी दासी है। जाओ दु:शासन! उसे राजसभा में खींच ले आओ। 


[दु:शासन का प्रस्थान] 


युधिष्ठिरः हे भगवान! यह मुझसे क्या हो गया? मैंने घोर अनर्थ, घोर पाप कर दिया। मुझे क्षमा कर देना भ्राताओं। क्षमा कर देना द्रौपदी। मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया।  


[दुःशासन द्रौपदी के बाल खींचकर मंच पर लाते हुए]


दुःशासनः (अट्टहास करते हुए) देखो सभासदो! यह है पांडवों की रानी द्रौपदी, जो अब हमारी दासी है। 


द्रौपदी: (करुण स्वर में, प्रतिरोध के साथ) रुक दुःशासन! तुझ में ऐसा साहस कि एक अबला के वस्त्र और बाल खींचता है? (धृतराष्ट्र की ओर मुड़कर) हे महाराज! आपकी यह कैसी राजसभा! जहाँ बैठे हुए बड़े नीतिज्ञ, धर्मज्ञों की आँखों के सामने एक नारी का अपमान हो रहा है और सारे के सारे गूँगे बनकर बैठे हैं।  


धृतराष्ट्रः द्रौपदी.... द्रौपदी! मैं असमर्थ हूँ। यह द्यूत क्रीड़ा के दाँवों का परिणाम है। (सिर झुकाकर) क्या करूँ। 


विदुरः (क्रोधपूर्वक) महाराज धृतराष्ट्र! यह अन्याय अधर्म है। खुद को भी हार चुकने के पश्चात द्रौपदी को द्यूत क्रीड़ा में दाँव पर लगाने का अधिकार युधिष्ठिर को नहीं था। यह सभा धर्म और न्याय व्यवस्था को लज्जित कर रही है, महाराज। 


दुर्योधनः चुप रहो तुम विदुर। युधिष्ठिर ने सब कुछ हारा और सबके सामने द्रौपदी को भी। द्रौपदी अब हमारी दासी है। भ्राता दुःशासन! इसका वस्त्र हरण कर और कभी द्रौपदी के द्वारा हम पर हुए अपमान का प्रतिशोध पूरा कर। 


[वस्त्रहरण -- 


द्रौपदी: (करुणता के साथ -- आँखों में आँसू) तुम सब धर्म को भूल गए हो। (आकाश की ओर हाथ जोड़ते हुए) मेरी रक्षा करो, गोविंद। मेरी लाज रक्षा करो। मैं तुम्हारी शरण में हूँ प्रभु। हे गोविंद! मैं तुम्हारी शरण में हूँ। मैं तुम्हारी शरण में हूँ। 


============================


(11) गीता उपदेश 



[कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि -- 


अर्जुनः [रथ पर खड़े होकर -- चिंतित स्वर में] मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच ले चलो वासुदेव। मैं अपने शत्रु पक्ष को अच्छी तरह देखना चाहता हूँ, कृष्ण!


यह क्या! मैं अपने ही गुरु, पितामह, स्वजन, भ्राता, ससुर, साले आदि के विरुद्ध कैसे युद्ध करूं? यह तो मुझसे बहुत बड़ा पाप होने जा रहा है कृष्ण।


कृष्ण: यह शोक तुझे शोभा नहीं देता पार्थ। तू एक क्षत्रिय है। युद्ध तेरा धर्म है। आत्मा अजर अमर है। यह न जन्म लेती है, न मरती है। यह नश्वर है, पर आत्मा अविनाशी है। उठो और युद्ध करो पार्थ। 


अर्जुनः मैं अपने ही परिजनों को कैसे मारूँ? केशव, यह युद्ध तो केवल वियोग और विनाश का कारण बनेगा। मैं यह युद्ध नहीं लड़ सकता, वासुदेव! नहीं लड़ सकता!! 


कृष्णः तू कर्म के फल की चिंता छोड़, अर्जुन। निष्काम कर्म करता जा जो तू करता है, सब कुछ मुझ पर छोड़। भगवान को समर्पित करता चल। सुख-दुख, हानि-लाभ, जय-पराजय -- सबको समान समझ। यही तुझे मोक्ष की ओर ले जाएगा पार्थ।


===========================


12: श्री कृष्ण का देहावसान प्रसंग 



[प्रभास क्षेत्र का घना वन -- पीपल/बरगदों के वृक्ष -- यमुना की लहरों की ध्वनि -- मुरली/भक्ति भजन की मधुर धुन] 


जरा: (स्वयं से) दिनभर कोई शिकार भी नहीं मिला। लगता है आज पत्नी और बच्चों को भूखा ही सोना पड़ेगा। (अचानक) अरे! वह क्या है। वाह! हिरण की पूँछ हिल रही है।  


[जरा निशाना लगाता है। तीर जाकर श्री कृष्ण के पैर में लगता है। रक्त की धारा ... जरा का दौड़ते हुए आ पहुँचना -- सोचना "यह तो हिरन नहीं" फिर श्री कृष्ण को देखकर भयभीत होना] 


जरा: (भय और पश्चात्ताप -- हाथ से धनुष-बाण गिर जाते हैं) हे भगवान! मैंने ये क्या किया? अनजाने में आपको घायल कर दिया, प्रभु। मैं आपके पीतांबर को हिरण समझ बैठा और तीर चला दिया। मैं पापात्मा, अधम! (श्रीकृष्ण के चरणों में जरा का गिर जाना) 


श्रीकृष्णः (शांत स्वर में) इसमें तेरा कोई दोष नहीं, जरा। यह तो मेरी ही लीला थी। तूने मेरे अवतार के उद्देश्य को पूर्ण कर दिया। भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं। जाओ, जरा! तुझ पर मेरी अनंत कृपा रहेगी। तूने जो किया इसमें तेरा कोई दोष नहीं। यह तो मेरी नियति थी, जरा।


जरा: (आँखों में आँसू -- करुण स्वर में) हे सुदर्शनधारी! मैंने सुना था, आपके चरणों में सारी सृष्टि झुकती है और मैंने... और मैंने उन चरणों को ही घायल कर दिया। मुझे धिक्कार है। मुझे धिक्कार है। मुझे दंड दें प्रभु। मुझे दंड दें। 


श्री कृष्णः (करुण परंतु दैवीय तेज के साथ) जरा! तू दुखी क्यों होता है? यह देह नश्वर है और मैं सनातन हूँ। तेरा बाण मेरे इस मानव रूप का अंत कर रहा है। इसका किसी-न-किसी रूप में अंत तो होना ही था। यह तो मेरी इच्छा थी कि इसी रूप में मेरे इस जीवन की समाप्ति हो। परंतु मेरी लीला कभी समाप्त नहीं होती। 


जरा: हे मधुसूदन! आपके शब्द मेरे हृदय को शांति तो देती हैं, पर मेरे मन का बोझ नहीं हटता। (रोते हुए) इस अधम का उद्धार कैसे होगा? और आपकी शरणागति कैसे मिलेगी, प्रभु? 


श्री कृष्णः भक्ति का मार्ग शब्द और कर्म से नहीं, हृदय की सच्चाई और शुद्धता से बनता है, जरा! तेरे हृदय की भावना शुद्ध है। तेरा पश्चात्ताप सच्चा है। यही तेरा उद्धार है। जरा, मेरी इस जीवन की लीला पूर्ण हो गई है। मैं अब सदा-सर्वदा अपने भक्तजनों के हृदय में निवास करता रहूँगा।


[मंच पर नीला प्रकाश -- श्रीकृष्ण का चतुर्भुज स्वरूप में प्रकट होना -- सभी का भक्ति में नतमस्तक होना -- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे -- महामंत्र की ध्वनि]



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

एवरेस्टः मेरी शिखर यात्रा (प्रश्नोत्तर)

लाख की चूड़ियाँ/ प्रश्नोत्तर

शब्द-भंडार